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माँ दुर्गा व अन्य देवियो के प्रसिद्ध मंदिर | Famous temples of Maa Durga and other goddesses

भारत में माँ दुर्गा को मानने वाले भक्तो की संख्या असंख्य है | बड़ी धूम धाम से घर घर में माँ के नवरात्रि की ज्योत जलाई जाती है और माँ का पाटा सजाया जाता है | इन दिनों माँ के मुख्य मंदिरो में माँ को आलोकित श्रंगार सजाया जाता है जिसके दर्शन करने के लिए भक्तो की बड़ी बड़ी लाइन लगती है |

भारत में माँ पार्वती के 51 या 52 शक्तिपीठ है | यहा हम उनमे से प्रमुख 9 शक्तिपीठो की जानकारी ले कर लाए है |

इस वेबसाइट के माध्यम से आप जान सकते है देवी माँ के भारत में मुख्य मंदिरो के बारे में | कोलकाता में माँ काली का कालीघाट कोलापुर में महा लक्ष्मी मुख्य है | हिमाचल प्रदेश में सबसे ज्यादा शक्तिपीठ है

Table of Contents

माँ दुर्गा व अन्य देवियो के प्रसिद्ध मंदिर

  • कालीघाट मंदिर कोलकाता
  • कोलापुर महालक्ष्मी मंदिर
  • श्रीपुरम महालक्ष्मी मंदिर वैल्लोर
  • अम्बाजी का मंदिर गुजरात
  • मनसा देवी मंदिर हरिद्वार
  • कालका माता मंदिर दिल्ली
  • तनोट माता मंदिर राजस्थान
  • हरसिद्धि माता मंदिर उज्जैन का मंदिर
  • माँ चिंतपुरणी मंदिर हिमाचल प्रदेश
  • ज्वाला देवी मंदिर काँगड़ा
  • नैना देवी मंदिर हिमाचल प्रदेश
  • कामाख्या देवी मंदिर गुवाहती
  • वज्रेश्वरी देवी मंदिर नगर कोट
  • दक्षिणेश्वर काली मंदिर कोलकाता
  • चामुण्डा मंदिर शक्तिपीठ
  • भद्रकाली शक्तिपीठ
  • महामाया शक्तिपीठ अमरनाथ
  • चामुन्देश्वरी मंदिर मैसुर शक्तिपीठ
  • अम्बिका शक्तिपीठ विराट
  • तारापीठ मंदिर कोलकाता
  • पुष्कर शक्तिपीठ
  • त्रिपुरमालिनी शक्तिपीठ पंजाब

कालीघाट मंदिर कोलकाता

यह कालिका का मंदिर काली घाट के नाम से भी पहचाना जाता है और पुरे भारत में आस्था का अनुठा केंद्र है | माना जाता है की इस जगह सती माँ के दांये पाँव के चार अंगुलियां यही गिरी थी इसी कारण इसे शक्ति के 51 शक्तिपीठो में माना जाता है | यहा माँ काली की प्रचंद मूरत के दर्शन होते है जो विशालकाय है |काली माँ की लम्बी जीभ जो सोने की बनी हुई है बाहर निकली हुई है और हाथ और दांत भी सोने से ही बने हुए है | माँ की मूरत का चेहरा श्याम रंग में है और आँखे और सिर सिन्दुरिया रंग में है | सिन्दुरिया रंग में ही माँ काली के तिलक लगा हुआ है और हाथ में एक फांसा भी इसी रंग में रंगा हुआ है | देवी को स्नान कराते समय धार्मिक मान्यताओं के कारण प्रधान पुरोहित की आंखों पर पट्टी बांध दी जाती है |माँ कालिका के अलावा शीतला, षष्ठी और मंगलाचंडी के भी स्थान है।

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माना जाता है की यह मंदिर 1809 के करिब बनाया गया था | इस शक्तिपीठ में स्थित प्रतिमा की प्रतिष्ठा कामदेव ब्रह्मचारी (सन्यासपूर्व नाम जिया गंगोपाध्याय) ने की थी। साथ ही यह कोलकाता मेट्रो का एक हिस्सा भी है |

अघोर और तान्त्रिक साधना का केंद्र :

माँ काली अघोरिया क्रियाओ और तंत्र मंत्र की सर्वोपरी देवी के रूप में जनि जाती है और साथ ही यह मंदिर इस देवी का शक्तिपीठ है | इन्ही कारणों से यह अघोर और तान्त्रिक साधना का बहूत बड़ा केंद्र बना हुआ है |

मंदिर की समय तालिका :

मंगलवार और शानिवार के साथ अस्तमी को विशेष पूजा की जाती है और भक्तो की भीड भी बहूत ज्यादा होती है | यह मंदिर सुबह 5 बजे से रात्रि 10:30 तक खुला रहता है | बीच में दोपहर में यह मंदिर 2 से 5 बजे तक बंद कर दिया जाता है | इस अवधि में भोग लगाया जाता है | सुबह 4 बजे मंगला आरती होती है पर भक्तो के लिए मंदिर 5 बजे ही खोला जाता है |

  • नित्य पूजा : 5:30 am से 7:00 am
  • भोग राग : 2:30 pm से 3:30 pm
  • संध्या आरती : 6:30 pm से 7:00 pm

कोलापुर में महा लक्ष्मी का मंदिर

मुंबई से 400 किमी. दूर कोलापुर महाराष्ट्र का एक जिला है जिसमे विश्व प्रसिद्द धन धान की देवी विष्णु प्रिया महालक्ष्मी का मंदिर स्तिथ है | यहा इन्हे अम्बा जी के नाम से इन्के भक्त पुकारते है | कोलापुर का इतिहास धर्म से जुडा हुआ है व धार्मिक महत्वापूर्ण है |

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मंदिर का इतिहास :

महालक्ष्मी मंदिर का निर्माण प्राचीन काल में चालुक्य शासक कर्णदेव ने 7वीं शताब्दीी में करवाया था। इसके बाद पुनः शिलहार यादव ने इसे 9 वी शताब्दीह में और आगे बढाया | मंदिर के मुख्यल गर्भगृह में देवी महालक्ष्मी् की 40 किलो की प्रतिमा शोभायमान है जिसकी लम्बाई लगभग चार फ़ीट की है | यह मंदिर 27000 फ़ीट में फैला हुआ है जिसकी ऊंचाई 35 से 45 फ़ीट तक की है | माँ लक्ष्मी की मूरत 7000 साल पुरानी है |

सुर्य की किरण का उत्सव :

साल में एक दिन ऐसा होता है जब सुर्य की किरण सुर्य अस्त के समय माँ लक्ष्मी की मूरत पर सीधे पड़ती है | इसे किरणों का त्यौहार (किरण उत्सव ) के नाम से जाना जाता है |

  • 31 जनवरी और 9 नवम्बर : सुर्य की किरणे माँ की मूरत के चरणों में |
  • 1 फ़रवरी और 10 नवम्बर : सुर्य की किरणे माँ की छाती पर आती है |
  • 2 फ़रवरी और 11 नवम्बर : सुर्य की किरणे माँ के पुरे शरीर पर आती है |

मंदिर की समय सारणी :

मंदिर सुबह 4:30 पर खुलता है और रात्रि में 10 pm पर पटट बंद किये जाते है इस दोहरान मंदिर में होने वाली दिनचर्या इस तरह है |

  • 4:30 am मंदिर के पटट का खुलना
  • 4:30 से 6:00 am ककड़ आरती
  • 8:00 am सुबह की महापूजा
  • 9:30 am भोग अर्पण नेवध्य
  • 11:30 am दोपहर की महा पूजन
  • 1:30 pm अलंकार पूजन
  • 8:00 pm धुप आरती
  • 10:00 pm शेज आरती और मंदिर के पटट बंद होना

दक्षिण भारत का स्वर्ण मंदिर

उत्तरी भारत में श्री दरबार साहिब अमृतसर को ही अभी तक भारत वर्ष का स्वर्ण मंदिर माना जाता था पर समय के साथ अब दक्षिण भारत में भी एक ऐसा स्वर्ण मंदिर तैयार हो गया है जिसमे इतना सोने का प्र्योग उपयोग हुआ है जितना आज तक विश्व के किसी भी मंदिर में नही हुआ है | यह मंदिर दक्षिण भारत में तमिलनाडु के वेल्लोर के पास श्रीपुरम में महालक्ष्मी के नाम से जाना जाता है | कहा जाता है इस मंदिर में पूरा ही सोना जडा गया है | और लगभग 15000 किलोग्राम शुद्ध सोने का प्रयोग हुआ है | यह मंदिर 100 एकड़ में फेला हुआ है और चारो तरफ हरियाली से घिरा हुआ है | इस मंदिर को हरियाली के बीच दर्शन करना नयनाभिराम दर्शय है किसी भी व्यक्ति के लिए | रात्री में यह मंदिर कृत्रिम रोशनी पाकर स्वर्ग का सा नजारा पेश करता है जो दुर से ही देखने लायक होता है |

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जो भक्त तमिलनाडु घुमने आते है उनके लिए यह मंदिर भी अब आकर्षण का केंद्र बन चूका है | धीरे धीरे इस मंदिर में आने वाले श्रद्धालु की संख्या में बढ़ोतरी होती जा रही है | कभी कभी इस मंदिर में एक लाख से ज्यादा श्रद्धालु आने लग गये है | यह मंदिर रेलवे स्टेशन काटपाडी से बस 7 किमी की दुरी पर स्तिथ है | इस मंदिर के निर्माण में सबसे बड़ा हाथ युवा संन्यासी शक्ति अम्मा का बताया जाता है | मंदिर की रचना वृताकार है और बहूत ही भव्य है | यहा मंदिर परिसर में बाहर की तरफ एक सरोवर बनाया गया है जिसमे भारत की सभी मुख्य नदियो का पानी लाया गया है | इसे सर्व तीर्थम सरोवर के नाम से जाना जाता है |

मंदिर सुबह 4 बजे से आठ बजे अभिषेक के लिए और सुबह आठ बजे से रात्रि आठ बजे तक समान्य दर्शन के लिए खुला रहता है। मंदिर में जाने के लिए बहूत सारे नियम बनाये गये है जैसे आप लुंगी, शॉर्ट्स, नाइटी, मिडी, बरमूडा पहनकर नहीं जा सकते।

अम्बाजी का मंदिर गुजरात

अम्बाजी प्राचीन भारत का सबसे पुराना और पवित्र तीर्थ स्थान है। ये शक्ति की देवी सती को समर्पित बावन शक्तिपीठों में से एक है। गुजरात और राजस्थान की सीमा पर बनासकांठा जिले की दांता तालुका में स्थित गब्बर पहाड़ियों के ऊपर अम्बाजी का मंदिर बना हुआ है | माना जाता है कि यह मंदिर लगभग बारह सौ साल पुराना है। इस मंदिर के जीर्णोद्धार का काम 1975 से शुरू हुआ था जो अब तक जारी है। श्वेत संगमरमर से निर्मित यह मंदिर बेहद भव्य व नयनाभिराम है। मंदिर का शिखर एक सौ तीन फुट ऊँचा है। शिखर पर 358 स्वर्ण कलश सुसज्जित हैं जो मंदिर की खुबसुरती में चार चाँद लगाते है।

अलग हटकर है यह मंदिर :

कहने को तो यह मंदिर भी शक्ति पीठ है पर यह मंदिर बाकि मंदिरो से कुछ अलग हटकर है | इस मंदिर में ना तो कोई माँ की मूरत है ना ही कोई पिंडी | इस मंदिर में माँ अम्बा की पूजा श्रीयंत्र की आराधना से होती है जिसे भी सीधे आँखों से देखा नहीं जा सकता | बड़ी संख्या में श्रद्धालु यहा वर्ष भर देश विदेश से आते रहते है | यह ५१ शक्तिपीठों में से एक है जहां मां सती का हृदय गिरा था। माता श्री अरासुरी अम्बिका के निज मंदिर में श्री बीजयंत्र के सामने एक पवित्र ज्योति अटूट प्रज्ज्वलित रहती है।

गब्बर नामक पहाड की भी है महिमा :

अम्बा जी के मंदिर से 3 किलोमीटर की दूरी पर गब्बर पहाड भी माँ अम्बे के पद चिन्हो और रथ चिन्हो के लिए विख्यात है | माँ के दर्शन करने वाले भक्त इस पर्वत पर पत्थर पर बने माँ के पैरो के चिंह और माँ के रथ के निशान देखने जरुर आते है |

कैसे पहुँचें- अम्बाजी मंदिर गुजरात

अम्बाजी मंदिर गुजरात और राजस्थान की सीमा के करीब ही है । यहाँ से सबसे नजदीक स्टेशन माउंटआबू का पड़ता है जो सिर्फ 45 किलोमीटर दूरी पर स्तिथ है । अम्बाजी मंदिर अहमदाबाद से 180 किलोमीटर की दूरी पर है

हरिद्वार में मनसा देवी मंदिर

मनसा देवी का प्रसिद्द मंदिर उत्तराखण्ड राज्य के हरिद्वार में स्तिथ है | हरिद्वार अपने नाम के अनुसार भगवान् (हरि) से मिलने का द्वार है | पूराणों के अनुसार इस जगह भूल से अमृत की कुछ बुँदे गिर गयी थी जब भगवान् विष्णु का गरुध अमृत कलश को ले जा रहा था |

हरिद्वार में कहाँ है मनसा माता मंदिर

मनसा देवी मंदिर सिवालिक पहाडियो पर बिलवा पहाड़ पर स्तिथ है | यह जगह एक तरह से हिमालय पर्वत माला के दक्षिणी भाग पर पड़ती है |

मनसा देवी मंदिर की महिमा :

यह मंदिर माँ मनसा को समर्प्रित है जिन्हे वासुकी नाग की बहिन बताया गया है | कहते है माँ मनसा शक्ति का ही एक रूप है जो कश्यप ऋषि की पुत्री थी जो उनके मन से अवतरित हुई थी और मनसा कहलवाई | नाम के अनुसार मनसा माँ अपने भक्तो की मनसा (इच्छा) पूर्ण करने वाली है | भक्त अपनी इच्छा पूर्ण कराने के लिए यहा पेड की शाखा पर एक पवित्र धागा बाँधते है | जब उनकी इच्छा पुरी हो जाती है तो पुनः आकर उसी धागे को शाखा से खोलते है | भक्त माँ को खुश करने के लिए मंदिर में नारियल , प्रसाद मीठाया आदि भेट करते है | यह मंदिर सिद्ध पीठ है जहा पूजा करने से माँ का आशीष प्राप्त होता है | इस मंदिर में माँ मनसा की दो मूरत है एक मूरत आठ भुजाओ वाली व अन्य मूरत के तीन सिर और व पाँच भुजाये है |

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यह प्राचीन मंदिर है और हरिद्वार में आने वाले भक्त माँ के दरबार में सिर झुकाने जरुर आते है | इस मंदिर से माँ गंगा और हरिद्वार के समतल मैदान अच्छे से दिखते है | इस मंदिर में पहुचने के लिए उड़न खटोला या फिर सीधे रास्ते से चढाई करी जाती है | यह चढाई लगभग 1.5 किमी की है |
मनसा देवी मंदिर के पास ही चंडी देवी का भी प्रसिद्द मंदिर मोजुद है |

मंदिर की समय तालिका :

ज्यादातार मंदिर सुबह 8 बजे खुलता है और शाम 5 बजे मंदिर के पटट बंद कर दिए जाते है | दोपहर 12 से 2 तक मंदिर बंद रहता है | अन्य मनसा देवी के मंदिर : इस जगह के अलावा माँ मनसा के मंदिर भारत में और भी जगह है | राजस्थान में अलवर और सीकर में , मनसा बारी कोलकाता में , पञ्चकुला हरियाणा में , बिहार में सितामर्ही में , नरेला दिलही में आदि |

कालकाजी कालका माता मंदिर

दिल्ल्ही के दक्षीण में विराजमान कालकाजी मंदिर के नाम से विख्यात ‘कालिका मंदिर’ देश के प्राचीनतम सिद्धपीठों में से एक है। माँ के भक्त दर्शन करने पहुंचते हैं। कालका काली का ही दुसरा नाम है | इस मंदिर को जयंती पीठ और मनोकामना सिद्ध पीठ भी कहा जाता है | नाम के अनुसार भक्तो की यहा मनोकामनाये पूर्ण होती है | इस पीठ का अस्तित्व अनादि काल से माना गया है। और हर काल में इस जगह का स्वरुप बदला है | यह मंदिर माँ काली को समर्प्रित है जो असुरों के संहार के लिए अवतरित हुई थी | तब से यह मनोकामना सिद्धपीठ के रूप में विख्यात है। मौजूदा मंदिर उनके परम भक्त बाबा बालक नाथ ने स्थापित किया।

माँ काली का प्रकट होना :

एक बार स्वर्ग के देवता असुरो द्वारा सताये जाने पर भगवती की पूजा अर्चना की | देवताओ की पूजा से खुश होकर माँ ने कौशिकी देवी को अवतरित किया जिन्होंने अनेको असुरों का संहार किया लेकिन रक्तबीज नाम के असुर से पार नहीं पा सकी | तब माँ जगदम्बे ने अपनी भृकुटी से महाकाली को प्रकट किया जिन्होंने रक्तबीज को ख़त्म किया | महाभारत काल में युद्ध से पहले भगवान श्रीकृष्ण ने पांडवों के साथ यही विजय प्राप्ति के लिए कालका माँ से विनती की थी | बाद में बाबा बालकनाथ ने इस पर्वत पर तपस्या की। तब माता भगवती से उनका साक्षात्कार हुआ।

मंदिर की विशेषता

इस मंदिर के मुख्य 12 द्वार हैं, जो 12 महीनों का संकेत देते हैं। हर द्वार के पास माता के अलग-अलग रूपों का भक्तिमय चित्रण किया गया है। मंदिर के परिक्रमा में 36 मातृकाओं (हिन्दी वर्णमाला के अक्षर) के द्योतक हैं। माना जाता है कि ग्रहण में सभी ग्रह इनके अधीन होते हैं। इसलिए दुनिया भर के मंदिर ग्रहण के वक्त बंद होते हैं, जबकि कालका मंदिर खुला होता है।

नवरात्र मेले में माँ का अपने भक्तो के बीच आगमन :

9 दिनों के नवरात्रो में । मान्यता है कि अष्टमी व नवमी को माता मेला में घूमती हैं। इसलिए अष्टमी के दिन सुबह की आरती के बाद कपाट खोल दिया जाता है। दो दिन आरती नहीं होती। दसवीं को आरती होती है। कैसे जाएं मंदिर तक माता के दर्शन करने के लिए मेट्रो से कालकाजी मंदिर मेट्रो स्टेशन उतरकर लोग आसानी से पहुंच सकते हैं। जो बदरपुर मेट्रो लाइन पर स्थित है।

तनोट माता मंदिर राजस्थान

तनोट माँ(तन्नोट माँ) का मन्दिर जैसलमेर जिले से लगभग एक 130 कि॰मी॰ की दूरी पर स्थित हैं । यह जगह भारत पाकिस्थान सीमा के करीब ही है | मातेश्वरी तनोट माँ को पाकिस्थान बलूचिस्तान में पड़ने वाले हिंगलाज माँ के मंदिर का ही एक रूप कहा हैं ।भाटी राजपूत नरेश तणुराव ने वि.सं. 828 में तनोट का मंदिर बनवाकर मूर्ति को स्थापित कि थी । इसी बीच भाटी तथा जैसलमेर के पड़ौसी इलाकों के लोग आज भी पूजते आ रहे है ।

1965 भारत-पाक लड़ाई और माता का चमत्कार

माना गया है कि भारत और पाकिस्तान के मध्य सितम्बर 1965 को लड़ाई हुई थी , उसमें पाकिस्तान के सैनिकों ने मंदिर व मंदिर के आस पास पर कई बम गिराए थे लेकिन माँ की कृपा मंदिर परिसर में खरोच तक नही आ सकी । तभी से सीमा सुरक्षा बल के जवान इस मंदिर के प्रति काफी श्रद्धा भाव रखते है । आज भी मंदिर परिसर के म्युजीयम में वो बम रखे हुए है | इसी मंदिर को फिल्म बॉर्डर में दिखाया गया | हम्हारे जवानो के लिए माँ तनोत में बड़ी आस्था है |

माता मंदिर का इतिहास :-

बहुत पहले मामडि़या नाम के एक चारण थे। उनकी कोई संतान नहीं थी। संतान प्राप्त करने की लालसा में उन्होंने हिंगलाज शक्तिपीठ की सात बार पैदल यात्रा की। एक बार माता ने स्वप्न में आकर उनकी इच्छा पूछी तो चारण ने कहा कि आप मेरे यहाँ जन्म लें। माता कि कृपा से चारण के यहाँ 7 पुत्रियों और एक पुत्र ने जन्म लिया। उन्हीं सात पुत्रियों में से एक आवड़ ने विक्रम संवत 808 में चारण के यहाँ जन्म लिया और अपने चमत्कार दिखाना शुरू किया। सातों पुत्रियाँ देवीय चमत्कारों से युक्त थी। उन्होंने हूणों के आक्रमण से माड़ प्रदेश की रक्षा की।

हरसिद्धि माता मंदिर उज्जैन

मध्य प्रदेश के उज्जैन का प्रसिद्ध शक्तिपीठ हर सिद्धि माता मंदिर महाकाल ज्योतिर्लिंग मंदिर के पास ही स्तिथ है | यह 51 शक्तिपीठो में से एक है और इस मंदिर को हर सिद्धि माता के नाम से भी जाना जाता है | इस मंदिर में माँ काली की मूरत के दाये बांये माँ लक्ष्मी और देवी सरस्वती की मुर्तिया है | महा काली की मूरत गहरे लाल रंग में रंगी हुई है | माँ का श्री यन्त्र भी मंदिर परिसर में लगा हुआ है | कहा जाता है है सती माँ का बांया हाथ या उपरी होठ या दोनों इस जगह गिरे थे और इस शक्ति पीठ की स्थापना हुई थी | इसी जगह महान कवी कालीदास ने माँ के प्रशंसा में काव्य रचना की थी | यह माता राजा विक्रमादित्य की आराध्य देवी थी | कहा जाता है की राजा विक्रमादित्य ने अपना 11 बार शीश दान माँ के सामने किया और हर बार माँ ने फिर से उनके शीश को जोड़ दिया |

हरसिद्धि माता के मंदिर में कैसे पहुँचे :

यह मंदिर शिप्रा मंदिर के किनारे भेरूगढ़ में स्तिथ है | इंदौर से यह जगह 50 किमी की दूरी पर है | हवाई यात्रा से : नजदिकी हवाई अड़डा इंदौर रेल यात्रा से : उज्जैन भारत के मुख्य शहरो से अच्छी तरह रेल मार्ग से जुडा हुआ है | रुखने के लिए इस जगह बहूत सारी धर्मशालाये और होटल मौजुद है |

हरसिद्धि मंदिर उज्जैन की समय तालिका :

  • ज्यादातर मंदिर सुबह 4:00 बजे खुलकर रात्री 11:00 बजे तक बंद होता है |
  • भस्म आरती : 4:00 – 6:00 am
  • नैवद्य आरती :7:30 – 8:15 am
  • महा भोग आरती : 10:30 – 11:15 am
  • संध्या आरती : 6:30 – 7:15 pm
  • शयन आरती : 10:30 pm

माँ चिंतपुरणी मंदिर

माँ चिंतपुरणी का प्रसिद्द मंदिर 52 शक्तिपीठो में से एक है जहा माँ सती के जले हुए शरीर का एक अंग गिरा था जब भगवान् शिव उन्हें जलते हुए हवन कुंड से ला रहे थे | आज यह जगह बहूत सारे भक्तो के लिए माँ की कृपा पाने का श्र्रदा का केंद्र बन चूका है | देश विदेश से हजारो भक्त माँ से आशीष लेने इस दरबार में आते है | चिंतपुरणी का अर्थ ही है चिंताओ से मुक्ति दिलाने वाली | नाम के अनुसार ही यह माँ पिंडी रूप में कृपा बरसाने वाली है |

कहा है माँ चिंतपुरणी का मंदिर ?

यह मंदिर हिमाचल प्रदेश में उना जिले में पड़ता है जो की उत्तर दिशा में पच्चिमी हिमालय से और पुर्व में शिवालिक पहाडियो से घिरा हुआ है | यह शहर अच्छी तरह से रोड से दुसरे शहरो से जुडा हुआ है तथा यहा रुखने के लिए बहूत सारी धर्मशालाये और होटल है | मंदिर के अलावा भी पूरा शहर बहूत ही सुन्दर है |

मंदिर का निर्माण और इसके पीछे की कहानी :

कहते है की पंडित माई दास माँ दुर्गा के बहूत ही परम् भक्त थे और माँ की सेवा में दिन रात लगे रहते थे | एक रात उन्हें एक सुन्दर देवी के दर्शन सपने में होते है जो उन्से पिंडी खोजने के बाद मंदिर बनाने की बात कहती है | सपने को सच्च मान कर पंडित आस पास में पिंडी खोजने में लग जाते है | माँ की कृपा से उन्हें पिंडी उसकी जगह मिल जाती है जहा माँ सती का एक अंग गिरा था | इस पिंडी को लेकर माई दास मंदिर का निर्माण छाप्रोह गाँव में किया और रोज माँ की सेवा करते थे | आज यह जगह माँ चिंतपुरणी मंदिर कह्लाता है | आज भी पंडित माई दास के अग्रज ही पूजा का कार्य सँभालते है | माँ छिनमस्तिका के नाम से भी जानी जाती है |

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मंदिर की बनावट :

चिंतपुरणी बस स्टेशन से भवन तक का सफ़र एक भीड भरे बाजार से होकर निकलता है | मंदिर परिसर में एक बहूत पुराना पीपल का पेड है | मंदिर में श्री हनुमान , भगवान् शिव , गणेश जी और भैरो नाथ की मूरत भी है | माँ के दर्शन से पहले भक्त इन देवताओ के दर्शन करके आशीष पाते है | मुख्य गर्भग्रह में माँ चिंतपुरणी पिंडी रूप में विराजमान है | चांदी का दरवाजा मंदिर परिसर में लगे हुए है | पीपल के पेड पर मोली बांधकर भक्त मनोती मांगते है |

मंदिर की समय तालिका :

सर्दी में यह मंदिर सुबह 5 बजे से रात्री 9:30 तक खुला रहता है |
गर्मी में यह मंदिर सुबह 4:30 बजे से रात्री 10;00 तक खुला रहता है |

  • सुबह की आरती : 6 बजे
  • शाम की आरती : 8 बजे
  • भोग का समय : दोपहर 12:00
  • श्रिंगार : सुबह मंदिर खुलने पर

ज्वाला देवी का मंदिर

ज्वाला देवी का मंदिर भी के 51 शक्तिपीठों में से एक है जो हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा जिले में कालीधार पहाड़ी के बीच बसा हुआ है । शक्तिपीठ वे जगह है जहा माता सती के अंग गिरे थे। शास्त्रों के अनुसार ज्वाला देवी में सती की जिह्वा (जीभ) गिरी थी। मान्यता है कि सभी शक्तिपीठों में देवी भगवान् शिव के साथ हमेशा निवास करती हैं। शक्तिपीठ में माता की आराधना करने से माता जल्दी प्रसन्न होती है। ज्वालामुखी मंदिर को ज्योता वाली का मंदिर और नगरकोट भी कहा जाता है। मंदिर की चोटी पर सोने की परत चढी हुई है |

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ज्वाला रूप में माता

ज्वालादेवी मंदिर में सदियों से बिना तेल बाती के प्राकृतिक रूप से नौ ज्वालाएं जल रही हैं। नौ ज्वालाओं में प्रमुख ज्वाला माता जो चांदी के दीये के बीच स्थित है उसे महाकाली कहते हैं। अन्य आठ ज्वालाओं के रूप में मां अन्नपूर्णा, चण्डी, हिंगलाज, विध्यवासिनी, महालक्ष्मी, सरस्वती, अम्बिका एवं अंजी देवी ज्वाला देवी मंदिर में निवास करती हैं।

क्यों जलती रहती है ज्वाला माता में हमेशा ज्वाला :

एक कथा के अनुसार प्राचीन काल में गोरखनाथ माँ के अनन्य भक्त थे जो माँ के दिल से सेवा करते थे | एक बार गोरखनाथ को भूख लगी तब उसने माता से कहा कि आप आग जलाकर पानी गर्म करें, मैं भिक्षा मांगकर लाता हूं। माँ ने कहे अनुसार आग जलाकर पानी गर्म किया और गोरखनाथ का इंतज़ार करने लगी पर गोरखनाथ अभी तक लौट कर नहीं आये | माँ आज भी ज्वाला जलाकर अपने भक्त का इन्तजार कर रही है | ऐसा माना जाता है जब कलियुग ख़त्म होकर फिर से सतयुग आएगा तब गोरखनाथ लौटकर माँ के पास आयेंगे | तब तक यह अग्नी इसी तरह जलती रहेगी | इस अग्नी को ना ही घी और ना ही तैल की जरुरत होती है |

चमत्कारी गोरख डिब्बी

ज्वाला देवी शक्तिपीठ में माता की ज्वाला के अलावा एक अन्य चमत्कार देखने को मिलता है। यह गोरखनाथ का मंदिर भी कहलाता है | मंदिर परिसर के पास ही एक जगह ‘गोरख डिब्बी’ है। देखने पर लगता है इस कुण्ड में गर्म पानी खौलता हुआ प्रतीत होता जबकि छूने पर कुंड का पानी ठंडा लगता है ।

अकबर की खोली आँखे माँ के चमत्कार ने

अकबर के समय में ध्यानुभक्त माँ ज्योतावाली का परम् भक्त था जिसे माँ में परम् आस्था थी | एक बार वो अपने गाँव से ज्योता वाली के दर्शन के लिए भक्तो का कारवा लेकर निकला | रास्ते में मुग़ल सेना ने उन्हें पकड़ लिया और अकबर के सामने पेश किया | अकबर ने ध्यानुभक्त से पुछा की वो सब कहा जा रहे है | इस पर ध्यानुभक्त ने ज्योतावाली के दर्शन करने की बात कही | अकबर ने कहा तेरी मां में क्या शक्ति है ? ध्यानुभक्त जवाब ने कहा वह तो पूरे संसार की रक्षा करने वाली हैं। ऐसा कोई भी कार्य नही है जो वह नहीं कर सकती है।

इस बात पर अकबर ने ध्यानुभक्त के घोड़े का सिर कलम कर दिया और व्यंग में कहा की तेरी माँ सच्ची है तो इसे फिर से जीवित करके दिखाये | ध्यानुभक्त ने माँ से विनती की माँ अब आप ही लाज़ रख सकती हो | माँ के आशिष से घोड़े का सिर फिर से जुड़ गया और वो हिन हिनाने लगा | अकबर और उसकी सेना को अपनी आँखों पर यकिन ना हुआ पर यही सत्य था | अकबर ने माँ से माफ़ी मांगी और उनके दरबार में सोने का छत्र चढाने कुछ अहंकार के साथ पंहुचा | जैसे ही उसने यह छत्र माँ के सिर पर चढाने की कोशिश की , छत्र गिर गया और उसमे लगा सोना भी दुसरी धातु में बदल गया | आज भी यह छत्र इस मंदिर में मौजुद है |

कैसे पहुंचे माँ के मंदिर काली घाट पर :

कोलकाता के मुख्य जगह से यह बाहर की तरफ लगभग 20 कि.मी. की दूरी पर स्थित है |

नैना देवी शक्तिपीठ मंदिर हिमाचल प्रदेश

नैना देवी या नयना देवी मंदिर हिमाचल प्रदेश के बिलासपुर जिले में है। यह भी माँ शक्ति का एक सिद्ध पीठ है जो शिवालिक पर्वत श्रेणी की पहाड़ियो पर समुद्र तल से 11000 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है स्थित है। नैना देवी हिंदूओं के पवित्र तीर्थ स्थलों में से एक है। यह स्थान NH-21 से जुड़ा हुआ है। मंदिर तक जाने के लिए पद मार्ग या उड़्डनखटोले से भी जा सकते है | मान्यता है कि इस स्थान पर देवी सती के नेत्र गिरे थे। मंदिर में पीपल का पेड़ मुख्य आकर्षण का केन्द्र है जो कि अनेको शताब्दी पुराना है। मंदिर के गुम्बद सोने से बने हुए है | मंदिर निर्माण में सफेद मार्बल काम में लिए गये है | मुख्य गुम्बद पर नैना देवी को समर्प्रित झंडे दिखाई देते है | कुछ गुम्बदो पर शिव त्रिशूल भी लगे हुए है |

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मंदिर के मुख्य द्वार के दाई ओर भगवान गणेश और हनुमान कि मूर्ति है। मुख्य द्वार के के आगे दो शेर की प्रतिमाएं दिखाई देती है जो शेरोवाली की मुख्य सवारी है | मंदिर के गर्भग्रह में मुख्य तीन मूर्तियां है। दाई तरफ माँ काली , मध्य में नैना देवी की और बाई ओर भगवान श्री गणपति की प्रतिमा है। पास ही में पवित्र जल का तालाब है जो मंदिर से कुछ ही दूरी पर स्थित है। मंदिर के समीप एक गुफा है जिसे नैना देवी गुफा के नाम से जाना जाता है |

नैना देवी मंदिर की एक और कथा :

इस कथा के अनुसार एक गुज्जर लड्का जिसका नाम नैना राम था अपने गाँव में मवेशियो को चराया करता था | एक दिन उसने देखा की एक सफेद गाय के थनो से अपने आप दुध निकल कर एक पत्थर पर गिर रहा है और पत्थर द्वारा पिया जा रहा है | यह क्रिया वो अब रोज देखने लगा | एक रात्री माँ ने सपने में उसे दर्शन दिए और बताया की वो सामान्य पत्थर नहीं अपितु माँ की पिंडी है | यह बात नैना राम ने उस समय के राजा बीर चंद को बताई और राजा ने माँ नैना देवी का मंदिर निर्माण किया |

मंदिर कैसे पहुँचे ?

यह मंदिर दिल्ली से 350 किमी और चंडीगढ़ से 100 किमी की दुरी पर है | लुधियाना: 125 कि॰मी॰ दूर और चिन्तपूर्णी मंदिर 110 कि॰मी॰ दूर है |
सबसे पास का हवाईअद्दा चंडीगढ़ है | रैल्वे स्टेशन सबसे नजदिकी आनंदपुर साहिब है जहा से मंदिर 30 किमी की दुरी पर है | आनंदपुर साहिब से आसानी से टैक्सी बस मंदिर जाने के लिए मिल जाती है | रोड रास्ते के हिसाब से यह नेशनल हाईवे 21 पर पड़ता है |

कामाख्या देवी मंदिर गुवाहाटी

कामाख्या देवी मंदिर 51 शक्ति पीठो में से के है | यह मंदिर असम के गुवाहाटी शहर से 8 किलोमीटर पत्चिम में नीलांचल पर्वत पर स्तिथ है | यह मंदिर तान्त्रिक पुजारियो को तंत्र मंत्र सिद्धि प्राप्त करने के लिए सर्वोपरी मंदिर है | यहीं भगवती की महामुद्रा (योनि-कुण्ड) स्थित है।माना जाता है कि भगवान विष्णु ने जब देवी सती के शव को चक्र से काटा तब इस स्थान पर उनकी योनी कट कर गिर गयी।

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इसी मान्यता के कारण इस स्थान पर देवी की योनी की पूजा होती है। प्रत्येक वर्ष तीन दिनों के लिए यह मंदिर पूरी तरह से बंद रहता है। माना जाता है कि माँ कामाख्या इस बीच रजस्वला होती हैं। और उनके शरीर से रक्त निकलता है। इस दौरान शक्तिपीठ की अध्यात्मिक शक्ति बढ़ जाती है। इसलिए देश के विभिन्न भागों से यहां तंत्रिक और साधक जुटते हैं। आस-पास की गुफाओं में रहकर वह साधना करते हैं।

चौथे दिन माता के मंदिर का द्वार खुलता है। माता के भक्त और साधक दिव्य प्रसाद पाने के लिए बेचैन हो उठते हैं। यह दिव्य प्रसाद होता है लाल रंग का वस्त्र जिसे माता राजस्वला होने के दौरान धारण करती हैं। माना जाता है वस्त्र का टुकड़ा जिसे मिल जाता है उसके सारे कष्ट और विघ्न बाधाएं दूर हो जाती हैं। मौजुदा मंदिर नीलांचल कला में बना हुआ है | मंदिर का निर्माण 7वी शताबदी से 17 वी शताबदी तक बदलता रहा है | मंदिर में 7 छोटी शिखर है जिनपे शिवजी के त्रिशूल लगे हुए है |

कामाख्या धाम का प्रसिद्ध अंबुवासी मेला

जिस प्रकार उत्तर भारत में कुंभ महापर्व का महत्व माना जाता है, ठीक उसी प्रकार उससे भी श्रेष्ठ इस आद्यशक्ति के अम्बूवाची पर्व का महत्व है। इसके अंतर्गत विभिन्न प्रकार की दिव्य आलौकिक शक्तियों का अर्जन तंत्र-मंत्र में पारंगत साधक अपनी-अपनी मंत्र-शक्तियों को पुरश्चरण अनुष्ठान कर स्थिर रखते हैं। इस पर्व में मां भगवती के रजस्वला होने से पूर्व गर्भगृह स्थित महामुद्रा पर सफेद वस्त्र चढ़ाये जाते हैं, जो कि रक्तवर्ण हो जाते हैं।

मंदिर के पुजारियों द्वारा ये वस्त्र प्रसाद के रूप में श्रद्धालु भक्तों में विशेष रूप से वितरित किये जाते हैं। इस पर्व पर भारत ही नहीं बल्कि बंगलादेश, तिब्बत और अफ्रीका जैसे देशों के तंत्र साधक यहां आकर अपनी साधना के सर्वोच्च शिखर को प्राप्त करते हैं। वाममार्ग साधना का तो यह सर्वोच्च पीठ स्थल है। मछन्दरनाथ, गोरखनाथ, लोनाचमारी, ईस्माइलजोगी इत्यादि तंत्र साधक भी सांवर तंत्र में अपना यहीं स्थान बनाकर अमर हो गये हैं

श्री वज्रेश्वरी देवी मंदिर नगरकोट

श्री वज्रेश्वरी देवी मंदिर हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा शहर के समीप मालकड़ा पहाड़ी की ढलान पर उत्तर की नगरकोत में स्थित है। यह जगह , तन्त्र-मन्त्र, सिद्धियों, ज्योतिष विद्याओं, तन्त्रोक्त शक्तियों, देव परंपराओं की प्राप्ती का पसंदिदा स्थान रहा है। यह एक शक्ति पीठ है जहा माँ सती का बायां वक्षस्थल गिरा था। इसलिए इसे स्तनपीठ भी कहा गया है और स्तनपीठ भी अधिष्ठात्री वज्रेश्वरी देवी है। स्तनभाग गिरने पर वह शक्ति जिस रूप में प्रकट हुई वह वज्रेश्वरी कहलाती है।

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यह मंदिर मध्यकालीन मिश्रित वास्तुशिल्प का सुन्दरतम उदाहरण है। सभामण्डप अनेक स्तम्भों से सुसज्जित है। इस मंदिर के अग्रभाग में प्रवेश द्वार से जुड़े मुखमंडप और सभामंडप के शीर्ष भाग पर बने छोटे-छोटे गुम्बद, शिखर, कलश और मंदिर के स्तम्भ समूह पर मुगल और राजपूतकालीन शिल्प का प्रभाव दिख पड़ता है। यह स्तम्भ घट पल्लव शैली में बने हैं।

वज्रेश्वरी मंदिर का गर्भगृह

वज्रेश्वरी मंदिर के गर्भगृह में भद्रकाली, एकादशी और वज्रेश्वरी स्वरूपा तीन पिण्डियों की पूजा की जाती है। यहां पिण्डी के साथ अष्टधातु का बना एक पुरातन त्रिशूल भी है जिस पर दस महाविद्याओं के दस यंत्र अंकित हैं। इसी त्रिशूल के अधोभाग पर दुर्गा सप्तशती कवच उत्कीर्ण है। जनश्रुति है कि इस पर चढ़ाए गए जल को आसन्नप्रसू स्त्री को पिलाने से शीघ्र प्रसव हो जाता है। यही जल गंगा जल की तरह आखरी साँसों में मुक्ति दिलवाता है । इस मंदिर में जालंधर दैत्य का संहार करती देवी को रूद्र मुद्रा में दर्शाती एक पुरातन मूर्ति है। इसमें देवी द्वारा दानव को चरणों के नीचे दबोचा हुआ दिखाया है। इस मंदिर परिसर असंख्य देवी-देवताओं की पुरातन मुर्तिया देखी जा सकती हैं।

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इस मंदिर को प्राचीन काल में बहूत मुगलो ले लुटा और फिर पुनः स्थानीय राजाओ ने मंदिर को फिर से समर्ध किया |एक अन्य आख्यान के अनुसार जालंधर दैत्य की अधिवासित भूमि जालंधर पीठ पर ही देवी ने वज्रास्त्र के प्रहार से उसका वध किया था। इस दैव्य का वक्ष और कान का हिस्सा कांगड़ा की धरती पर गिरकर वज्र के समान कठोर हो गया था। उसी स्थान पर वज्रहस्ता देवी का प्राकट्य हुआ। वज्रवाहिनी देवी को शत्रुओं पर विजय पाने के लिए भी पूजा जाता रहा है।

मंदिर में माँ की पूजा अर्चना और सेवा :

वज्रेश्वरी मंदिर में देवी की पूजा प्राचीनकाल से तांत्रिक विधि से होती थी। वर्तमान में वज्रेश्वरी मंदिर में पूजा ब्रह्मïमुहूर्त में स्नान व शृंगार के साथ की जाती है और पंच मेवा का भोग लगाया जाता है तथा इसके पश्चात आरती होती है। मध्याह्नï चावल और दाल का भोग लगाकर आरती होती है। सायंकालीन आरती दूध, चने और मिठाई का भोग लगाया जाता है। यहां चैत्र और आश्विन नवरात्रों तथा श्रावण मास में मेलों को मनाने की प्रथा का अनूठा प्रचलन है। चैत्र मास के नवरात्रों में तो वज्रभूमि वृन्दावन के श्रद्धालु पीत वस्त्र पहनकर माता के मंदिर में शीश नवाने आते हैं। वह ध्यानु भक्त को अपने कुल का वंशज मानते हैं।

मकर संक्रांति की महिमा :

जनश्रुति है कि वज्रमय जालंधर दैत्य का संहार करने पर माता की कोमल देह पर अनेक चोटें आ गई थीं। इसका उपचार देवताओं ने जख्मों पर घी लगाकर किया था। आज भी उसी परंपरा को आगे बढ़ाते हुए संक्रांति को माता की पिण्डी पर पांच मन देसी घी, मक्खन चढ़ाया जाता है, उसी के ऊपर मेवे और फलों को रखा जाता है। यह भोग लगाने का सिलसिला सात दिन तक चलता है। फिर भोग को प्रतिदिन श्रद्धालुओं में प्रसाद स्वरूप बांट दिया जाता है।

दक्षिणेश्वर काली मंदिर

कोलकाता में माँ काली का सबसे बड़ा मंदिर दक्षिणेश्वर काली मंदिर के नाम से प्रसिद्द है जो हुगली (गंगा का दुसरा नाम) नदी के तट पर बेलूर मठ के पास स्तिथ है | यह मुख्यत बंगालियों के अध्यांत्म का प्रमुख केंद्र माना जाता है साथ ही देश विदेश से काली माँ के भक्तो की भारी संख्या भी दर्शन करने यहा आती है | इस मंदिर का निर्माण कार्य सन् 1855 में पूरा हुआ जो महारानी रासमणि ने करवाया था |

गुरु रामकृष्ण परमहंस और उनके परम शिष्य श्री विवेकानंद जी का इस मंदिर से बहूत ही गहरा रिस्था है | कहते है की माँ काली ने साक्षात् गुरु रामकृष्ण परमहंस को इस मंदिर में दर्शन दिए थे | इस मंदिर परिसर में हुआ परमहंस देव का कमरा है, जिसमें उनका पलंग तथा उनके स्मृतिचिह्न उनकी याद में रखे हुए हैं। बाहर उनकी पत्नी की समाधी एक पेड के निचे बनाई गयी है | इस मंदिर में 12 गुम्बद है और चारो तरफ शिव जी की 12 प्रतिमा स्थापित है | इसके अलावा भी मंदिर परिसर में अन्य देवी देवताओ के बहूत सारे मंदिर बनाये गये है | मंदिर का मुख्य आकर्षण भीतरी भाग में चाँदी से बनाए गए कमल के फूल जिसकी हजार पंखुड़ियाँ हैं, पर माँ काली अपने अस्त्रो और शस्त्रो के साथ भगवान शिव के ऊपर खड़ी हुई हैं। नवरत्न की तरह निर्मित इस मंदिर की चोडाई 46 फुट 100 फुट ऊँचाई है।

चामुण्डा मंदिर शक्तिपीठ

किस जगह है शक्तिपीठ चामुंडा देवी मंदिर

हिन्दू श्रद्धालुओं का मुख्य केंद्र और 51 शक्तिपीठों में एक चामुंडा देवी देव भूमि हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा जिले में स्थित है. बंकर नदी के तट पर बसा यह मंदिर महाकाली को समर्पित है | मान्यता है कि यहां पर आने वाले श्रद्धालुओं की सभी मनोकामना पूर्ण होती है। पौराणिक कथाओं के अनुसार इसी स्थान पर माता का चरण गिर पड़ा था यहां शक्तिपीठ रूप में स्थापित हो गई | देश के कोने-कोने से भक्त यहां पर आकर माता का आशीर्वाद प्राप्त करते है साथ ही प्राकृतिक सौंदर्य लोगो को अपनी और आकर्षित करती है | यह मंदिर माँ काली को समर्प्रित है जिन्हे बुराई का संगार करने वाली बताया जाता है |

चामुंडा मंदिर की विशेष मान्यता :

चामुंडा देवी मंदिर भगवान शिव और शक्ति का स्थान है. भक्तों में मान्यता है कि यहां पर शतचंडी का पाठ सुनना और सुनाना माँ की कृपा पाने के लिए सबसे सरल तरीका है और इसे सुनने और सुनाने वाले का सारा क्लेश दूर हो जाता है.

माँ काली चामुण्डा क्यों कहलाती है ?

दुर्गा सप्तशती के सप्तम अध्याय में वर्णित कथाओं के अनुसार एक बार चण्ड-मुण्ड नामक दो महादैत्य देवी से युद्ध करने आए तो, देवी ने काली का रूप धारण कर उनका वध कर दिया. माता देवी की भृकुटी से उत्पन्न कलिका देवी ने जब चण्ड-मुण्ड के सिर देवी को उपहार स्वरुप भेंट किए तो देवी भगवती ने प्रसन्न होकर उन्हें वर दिया कि तुमने चण्ड -मुण्ड का वध किया है, अतः आज से तुम संसार में चामुंडा के नाम से विख्यात हो जाओगी. मान्यता है कि इसी कारण भक्तगण देवी के इस स्वरुप को चामुंडा रूप में पूजते हैं |

चामुण्डा देवी मंदिर जाने के रास्ते :

हवाई यात्रा द्वारा
चामुण्डा देवी मंदिर का नजदीकी हवाई अड्डा गगल में है जो कि मंदिर से 28 कि॰मी॰ की दूरी पर स्थित है। इसके बाद आप कार बस से मंदिर तक की यात्रा कर सकते है |

सड़क मार्ग
सड़क मार्ग से जाने वाले पर्यटको के लिए हिमाचल प्रदेश टूरिज्म विभाग कि बस सेवा है | धर्मशाला जगह से 15 कि॰मी॰ और ज्वालामुखी से 55 कि॰मी॰ की दूरी पर मंदिर स्थित है। यहा से बस कार से आप मंदिर जा सकते है | रेल मार्ग

मराण्डा पालमपुर जेसी जगह 30 किमी की दुरी पर है | पठान कोट सभी प्रमुख राज्यो से रेल मार्ग से जुड़ा हुआ है ।

भ्रामरी देवी भद्रकाली शक्तिपीठ

महाराष्ट्र के नासिक स्थित भद्रकाली मंदिर प्रधान 51 शक्तिपीठों में से एक और हिन्दू श्रद्धालुओं का प्रमुख तीर्थ स्थल है | यह मंदिर स्टेशन से नासिक रोड पर 8 किमी की दुरी पर एक पहाड़ी पंचवती पर स्तिथ है |

सती कथा के अनुसार प्रजापति दक्ष के यज्ञ में अपने पति भगवान शिव को अपमानित होते देख माता सती ने जब हवन को खुद को भस्मीभूत कर लिया तो त्रिकालदर्शी शिव अत्यंत क्रोधित हो गए और माता सती के मृत शरीर को अपने कंधे पर लेकर सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड भ्रमण करने लगे. तब भगवती सती के शरीर से ठुड्डी नासिक के इसी पवित्र स्थान पर गिर पड़ी थी और देवी सती यहां महाशक्तिपीठ के रूप में स्थापित हो गई.

यहां भगवती देवी भ्रामरी रूप में जबकि भगवान भोलेनाथ (भैरू ) विकृताक्ष के रूप में प्रतिष्ठित हैं |
माता के इस मंदिर में शिखर नहीं है. यहां पर नवदुर्गा की मूर्तियां हैं जो नौ पहाडियो का के संकेट रूप में है और उनके मध्य में भद्रकाली की ऊंची मूर्ती है. माता के इस प्रसिद्ध शक्तिपीठ भद्रकाली मंदिर में माता के दर्शन-पूजन का बड़ा महत्व है. मान्यताओं के अनुसार माँ के इशारे पर ही भक्त दर्शन हेतू आ सकते है और श्रद्धापूर्वक की गयी पूजा से वे भद्रकाली माँ के कृपापात्र होते है |

इस शहर का नाम नासिक कैसे पड़ा ?

इस जगह नौ छोटी-छोटी पहाड़ियाँ हैं, जिनके कारण इसका नाम पड़ा-‘नव शिव’, जो धीरे धीरे समय के साथ बदल कर ‘नासिक’ हो गया | मंदिर की स्थापना : 1790 के करीब इस्लाम शासन में मूर्ति अपमानित न हो इसी कारण सरदार गणपत राव दीक्षित ने बिना शिखर का और बिना कलश स्थापना के यह मंदिर पहाड़ी पर बनवाया | माँ के 18 भुजाओ में 18 तरह के अस्त्र शस्त्र है |

महामाया शक्तिपीठ अमरनाथ

अमरनाथ धाम विश्व प्रसिद्द बर्फानी शिव लिंग के साथ महामाया शक्तिपीठ की भी भक्तो में बहूत बड़ी मान्यता है | कहते है इस जगह ही भगवान् शिव ने अपनी पत्नी पार्वती को अमरता का ज्ञान दे रहे थे | यह मंदिर भी अमरनाथ की पवित्र गुफा में ही है | इस जगह देवी सती की गर्दन गिरी थी और इस तरह यह जगह 51 शक्तिपीठो में से एक है | यहा शिव भैरो को त्रिसंध्येश्वर के नाम से पूजा जाता है | अमरनाथ की इस पवित्र गुफा में जहां भगवान शिव के हिमलिंग का दर्शन होता है वहीं हिमनिर्मित एक पार्वतीपीठ भी बनता है. यहीं पार्वतीपीठ महामाया शक्तिपीठ के रूप में मान्य है. |

यहां भगवती सती के अंग तथा अंगभूषण की पूजा होती है. आस्थावान भक्तों में मान्यता है कि जो यहां भक्ति और श्रद्धापूर्वक भगवती महामाया के साथ-साथ अमरनाथ वासी भगवान भोलेनाथ के हिमलिंग रूप की पूजा करता है, वह इस लोक में सारे सुखों का भोगकर शिवलोक में स्थान प्राप्त करता है |

किस जगह है यह महामाया अमरनाथ शक्तिपीठ :

अमरनाथ शक्तिपीठ भारत के कश्मीर में श्रीनगर से 141 किमी की दुरी 12700 फ़ीट की ऊंचाई पर स्तिथ है | अमरनाथ गुफा तक जाने के लिए दो रास्ते है | पहला बलतल जो श्रीनगर से 70 किमी की दुरी पर है | जबकी दुसरा रास्ता फल्गम जो 94 किमी की दुरी पर है |यह रास्ता चन्दंवारी ,शेष्नाग और पंच्चात्रानी से हो कर गुजरता है | यह रास्ता बलतल रास्ते से ज्यादा अच्छा है और चन्दंवारी से 16 किमी की दुरी पर पवित्र अमरनाथ गुफा है | हर साल स्थानीय सरकार शिव भक्तो के लिए वार्षिक अमरनाथ यात्रा की व्यवस्था कराती है | यात्रा मुख्य रूप से जून से अगस्त तक होती है |

चामुन्देश्वरी मंदिर मैसुर

भारत के दक्षिण दिशा में राज्य कर्नाटका के मैसूर शहर से 13 किमी की दुरी पर पहाड़ पर माँ चामुन्देश्वरी का मंदिर स्तिथ है | माना जाता है की यहा शक्ति माँ के बाल गिरे थे | माँ शक्ति के विनाशकारी रूप काली के नाम पर इनका नाम चामुन्देश्वरी रखा गया है | यह चणड मुंड और भेसे के मूहं वाले महिससुर दानव को नाश करने वाली माँ है | मैसुर महाराजाओ की यह आराध्य देवी रही है |

क्रौंचा पीठ : त्रिमुता जगह जो आठ पहाडियो से गिरा हुआ है | यह जगह पुराने समय में क्रोंचा पूरी थी तो इसी कारण इस शक्तिपीठ को क्रौंचा पीठ के नाम से जाना जाता है | मंदिर के द्वार पर भगवान् श्री गणेश की मूरत है | दरवाजे चांदी से बने हुए है जिसपर माँ के अनेक रूप की छविया बनी हुई है | दरवाजे के दोनों तरफ द्वार पालक बने हुए है जिनका नाम नंदिनी और कमालिनी है | मंदिर के अन्दर माँ के चरण कमल है और साथ में नंदी की छोटी प्रतिमा है |

प्लास्तीक रहित चामुन्देश्वरी पहाड़ी : यह जगह प्लास्तीक रहित है और इस जगह दर्शन कर्ताओ का प्लास्तीक की थेली ले जाना वर्जित है |

चामुन्देश्वरी मंदिर की समय तालिका :

  • दर्शन समय : सुबह 7.30 a.m से दोपहर 2.00 p.m और दोपहर 3.30 से शाम 6.00 p.m और रात्रि 7-30 p.m से 9 p.m. तक
  • अभिषेक समय : सुबह 6 a.m. से 7.30 a.m और शाम 6 p.m से 7.30 p.m | शुक्र्वार को सुबह 5 a.m to 6.30 a.m.
  • खाने का समय : भोजन समय भक्तो के लिए दोपहर 12:30 से 2:30 तक है

अम्बिका शक्तिपीठ राजस्थान

यह मंदिर राजस्थान के भरतपुर के पास विरात में स्तिथ है | यह जगह राजस्थान की गुलाबी नगरी जयपुर से लगभग 90 km की दूरी पर है | जयपुर से आप लोकल ट्रैन या कार बस द्वारा इस शक्तिपीठ की यात्रा कर सकते है |

माँ सती के इस जगह बाये पैर की अंगुलिया गिरी थी और इस शक्तिपीठ की स्थापना हुई | यहाँ पार्वती माँ अम्बिका के रूप में और भगवान् शिव अमृत्सेवर के रूप में पुजे जाते है |

तारापीठ मंदिर कोलकाता

काली घाट शक्तिपीठ के साथ ही पश्चिम बंगाल के बीरभूम जिले में में एक और शक्तिपीठ स्थापित है जो माँ तारा देवी को समर्पित है | स्थानीय भाषा में तारा का अर्थ होता है आँख और पीठ का अर्थ है स्थल अत: यह मंदिर आँख के स्थल के रूप में पूजा जाता है | पुराण कथाओ के अनुसार माँ सती के नयन (तारा ) इसी जगह गिरे थे और इस शक्तिपीठ की स्थापना हुई | यह मंदिर तांत्रिक क्रियाकलापो के लिए भी जाना जाता है | प्राचीन काल में यह जगह चंदीपुर के नाम से पुकारी जाती है अब इसे तारापीठ कहते है |

तारापीठ मंदिर निर्माण :

बहूत बहूत साल पहले महर्षि वशिष्ठ ने माँ की कठिन पूजा पाठ करके अनेको सिद्धियां प्राप्त की थीं और उन्ही ने इनका मंदिर का निर्माण भी करवाया था पर समय के साथ वो प्राचीन मंदिर धरा की गोढ़ में समा गया | वर्तमान में जो तारापीठ मंदिर आप देखते है , उसका निर्माण एक माँ के भक्त जयव्रत ने करवाया जो पेशे से एक कारोबारी थे |

तारापीठ मंदिर की बनावट :

तारापीठ मंदिर ना ही ज्यादा बड़ा है ना ही छोटा | मंदिर निर्माण में मुख्यत: संगमरमर मार्बल काम में लिए गये है | छत ढ़लानदार है , जिसे ढोचाला कहते है | मंदिर में द्वार अच्छी तरह से सुन्दर कारिगरी का भारतीय कला का नमुना पेश करते है |
माँ तारा की मूरत के मुख पर तीन आँखे है और मुख सिंदुर से रंगा हुआ है | साथ ही हर अनुपम छवि सजाई जाती है | पास ही शिव प्रतिमा है | मंदिर में प्रसाद के रूप में माँ की स्नान कराई जाने वाली जल , शराब का प्रसाद दिया जाता है |

मुख्य तान्त्रिक संत बामखेपा:

इन्हे यहा मुख्य और प्रमुख तांत्रिकों में से एक माना जाता है | तारापीठ का पागल संत नाम से यह प्रसिद्द है | इन्की समाधी लाल रंग से मंदिर के प्रवेश द्वार के करीब ही है |इस संत की याद में भी एक मंदिर बनाया गया है |

पुष्कर में शक्तिपीठ गायत्री मंदिर

राजस्थान में अजमेर के पास विश्य प्रसिद्द पुष्कार से लगभग 5 किमी की दुरी पर एक और सती माँ का शक्तिपीठ है जिसे मणिबंद शक्तिपीठ के नाम से जाना जाता है | साथ है मणिवेदिका भी इस मंदिर को कहते है | इस जगह माँ सती के हाथ की कलाई गिरी थी ऐसा माना जाता है | यह शक्तिपीठ मणिदेविकाशक्तिपीठ या गायत्री मन्दिर के नाम से विख्यात है | यहा के शिव भैरू सर्ववनंदा के कहलाते है |

अजमेर से यह 11 किमी की दुरी पर है | यह तो हम जानते ही है की शक्तिपीठ की स्थापना कैसे हुई और कुछ शक्तिपीठ मंदिर पाकिस्थान म बंगलादेश श्रीलंका और नेपाल में भी भारत के बाहर मौजुद है | यह पुष्कार स्तिथ माँ का शक्तिपीठ भक्तो में इतना प्रसिद्द नहीं हो सका और आज भी बहूत सारे भक्त इससे अन्जान है | विश्य प्रसिद्द ब्र्ह्मा मंदिर से आसानी से ऑटो या कार से इस मंदिर तक जाया जा सकता है |

पास ही पुष्कर में ब्रह्मा मंदिर , सवित्री मंदिर मुख्य है |

त्रिपुर मालिनी माँ का मंदिर

पंजाब के जालंधर में उत्तर की तरफ रेलवे स्टेशन से सिर्फ 1 किमी की दुरी पर माँ भगवती का यह शक्तिपीठ स्थापित है | यह मंदिर माँ त्रिपुरमालिनी देवी मंदिर और देवी तालाब मंदिर नाम से जाना जाता है | यह मंदिर भी माँ सती के 51 शक्तिपीठो में से के है |
कहा जाता है की माँ सती का इस जगह बाया वक्ष ( स्तन ) गिरा था और इस शक्तिपीठ की मान्यता हो गयी थी | यहाँ की शक्ति ‘त्रिपुरमालिनी’ तथा भैरव ‘भीषण’ हैं। हजारो भक्त माँ की कृपा पाने दर्शन हेतु दुर दुर से यहा आते है | इस मंदिर में शिवा की भीसन मानकर पूजा की जाती है | मंदिर का शिखर सोने से बनाया गया है | समय समय पर मंदिर परिसर में माँ के जगरात्रे और नवरात्रो में बड़ी धूम धाम से मेला भरता है | मंदिर बहूत सारी मन मोहक झांकिया भी त्यौहारो पर लगाता है जिसे देखने भक्तो की अपार भीड दुर दराज से आती है |

माँ त्रिपुरमालिनी देवी मंदिर परिसर :

कहा जाता है की यह मंदिर 200 साल पुराना है | इसे ‘स्तनपीठ’ भी कहा जाता है जिसमे देवी का वाम स्तन कपडे से ढका रह्ता है और धातु से बना मुख के दर्शन भक्तो को कराये जाते है | यह मंदिर तालाब के मध्य स्तिथ है जहा जाने के लिए 12 फ़ीट चोड़ी जगह है | मुख्य भगवती के मंदिर में तीन मूरत है | माँ भगवती के साथ माँ लक्ष्मी और माँ सरस्वती विराजमान है | भक्त इस मंदिर में इन देवियो की मूरत के परिकर्मा देते है | पूरा मंदिर परिसर लग भग 400 मीटर में फैला हुआ है | मंदिर परिसर में भक्तो के आराम करने की सुविधा भी है |

मंदिर की समय तालिका :

ज्यादातर मंदिर सुबह 4:00 बजे खुलकर रात्री 11:00 बजे तक बंद होता है |
भस्म आरती : 4:00 – 6:00 am

नैवद्य आरती :7:30 – 8:15 am

महा भोग आरती : 10:30 – 11:15 am

संध्या आरती : 6:30 – 7:15 pm

शयन आरती : 10:30 pm

अन्य मुख्य नवरात्रि ज्ञान :

नवदुर्गा बीज मंत्र

माँ दुर्गा का मूर्ति रूप कैसा हो माँ दुर्गा के लिए गये अवतार

नवरात्रि में कन्या पूजन विधि

निचे दिए गये लिंकों में आप जानेंगे नवरात्रि से जुडी विशेष बाते :

सभी देवताओ की पूजा माँ दुर्गा की पूजा से

क्या होते है नवरात्रे

कैसे होती है नवरात्रों में कलश स्थापना

माँ का जगराता या जागरण

क्या करे क्या ना करे नवरात्रों में

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