शक्तिपीठ बनने और माँ के सती होने की कहानी
पूराणों के अनुसार दक्ष राजा ने अपने जवाई भगवान शिव का अपमान करने के लिए एक यज्ञ का आयोजन किया जिसमे शिवजी के अलावा सभी देवी देवताओ को बुलाया गया | यह बात शिवजी की पत्नी माँ सती को सही नहीं लगी और वे उसी हवन कुंड में सती हो गयी | भगवान शिव को जब यह पता चला तो वे बहूत क्रोधित हुए और जले हुए सती के शरीर को लेकर इधर उधर भटकने लगे | क्रोध में उनकी तीसरी आँख भी खुल गयी जिससे सारे संसार में प्रलह आ गयी | भगवान श्री विष्णु ने तब अपने सुदर्शन चक्र से माँ के सती को छिन भिन किया और उनके शरीर के अंग और आभुषण जगह जगह गिरे | ये स्थान अलग अलग धर्म ग्रंथो में अलग अलग है | हम इन जगहो को देवी पुराण के अनुसार 51 मानते है जो माँ सती के शक्ति पीठ कहलाये | ये अत्यंय पावन तीर्थ स्थान है जिनके दर्शन मात्र से कल्याण होता है ।
9 शक्तिपीठ कौन कौन से हैं?
मुख्य 9 शक्तिपीठ
- कालीघाट मंदिर कोलकाता- पांव की चार अंगुलियां गिरी
- कोलापुर महालक्ष्मी मंदिर- त्रिनेत्र गिरा
- अम्बाजी का मंदिर गुजरात- हृदय गिरा
- नैना देवी मंदिर- आंखों का गिरना
- कामाख्या देवी मंदिर- योनि गिरा था
- हरसिद्धि माता मंदिर उज्जैन बायां हाथ और होंठ यहां पर गिरे थे
- ज्वाला देवी मंदिर सती की जीभ गिरी
- कालीघाट में माता के बाएं पैर का अँगूठा गिरा था. इसकी शक्ति है कालिका और भैरव को नकुशील कहते हैं.
- वाराणसी:- विशालाक्षी उत्तरप्रदेश के काशी में मणिकर्णिक घाट पर माता के कान के मणिजड़ीत कुंडल गिरे थे. इनकी शक्ति है विशालाक्षी मणिकर्णी और भैरव को काल भैरव कहते हैं.
1. कालीघाट मंदिर कोलकाता
यह कालिका का मंदिर काली घाट के नाम से भी पहचाना जाता है और पुरे भारत में आस्था का अनुठा केंद्र है | माना जाता है की इस जगह सती माँ के दांये पाँव के चार अंगुलियां यही गिरी थी इसी कारण इसे शक्ति के 51 शक्तिपीठो में माना जाता है | यहा माँ काली की प्रचंद मूरत के दर्शन होते है जो विशालकाय है |काली माँ की लम्बी जीभ जो सोने की बनी हुई है बाहर निकली हुई है और हाथ और दांत भी सोने से ही बने हुए है | माँ की मूरत का चेहरा श्याम रंग में है और आँखे और सिर सिन्दुरिया रंग में है | सिन्दुरिया रंग में ही माँ काली के तिलक लगा हुआ है और हाथ में एक फांसा भी इसी रंग में रंगा हुआ है | देवी को स्नान कराते समय धार्मिक मान्यताओं के कारण प्रधान पुरोहित की आंखों पर पट्टी बांध दी जाती है |माँ कालिका के अलावा शीतला, षष्ठी और मंगलाचंडी के भी स्थान है।
माना जाता है की यह मंदिर 1809 के करिब बनाया गया था | इस शक्तिपीठ में स्थित प्रतिमा की प्रतिष्ठा कामदेव ब्रह्मचारी (सन्यासपूर्व नाम जिया गंगोपाध्याय) ने की थी। साथ ही यह कोलकाता मेट्रो का एक हिस्सा भी है |
अघोर और तान्त्रिक साधना का केंद्र :
माँ काली अघोरिया क्रियाओ और तंत्र मंत्र की सर्वोपरी देवी के रूप में जनि जाती है और साथ ही यह मंदिर इस देवी का शक्तिपीठ है | इन्ही कारणों से यह अघोर और तान्त्रिक साधना का बहूत बड़ा केंद्र बना हुआ है |
मंदिर की समय तालिका :
मंगलवार और शानिवार के साथ अस्तमी को विशेष पूजा की जाती है और भक्तो की भीड भी बहूत ज्यादा होती है | यह मंदिर सुबह 5 बजे से रात्रि 10:30 तक खुला रहता है | बीच में दोपहर में यह मंदिर 2 से 5 बजे तक बंद कर दिया जाता है | इस अवधि में भोग लगाया जाता है | सुबह 4 बजे मंगला आरती होती है पर भक्तो के लिए मंदिर 5 बजे ही खोला जाता है |
- नित्य पूजा : 5:30 am से 7:00 am
- भोग राग : 2:30 pm से 3:30 pm
- संध्या आरती : 6:30 pm से 7:00 pm
2. कोलापुर में महा लक्ष्मी का मंदिर
मुंबई से 400 किमी. दूर कोलापुर महाराष्ट्र का एक जिला है जिसमे विश्व प्रसिद्द धन धान की देवी विष्णु प्रिया महालक्ष्मी का मंदिर स्तिथ है | यहा इन्हे अम्बा जी के नाम से इन्के भक्त पुकारते है | कोलापुर का इतिहास धर्म से जुडा हुआ है व धार्मिक महत्वापूर्ण है |
मंदिर का इतिहास :
महालक्ष्मी मंदिर का निर्माण प्राचीन काल में चालुक्य शासक कर्णदेव ने 7वीं शताब्दीी में करवाया था। इसके बाद पुनः शिलहार यादव ने इसे 9 वी शताब्दीह में और आगे बढाया | मंदिर के मुख्यल गर्भगृह में देवी महालक्ष्मी् की 40 किलो की प्रतिमा शोभायमान है जिसकी लम्बाई लगभग चार फ़ीट की है | यह मंदिर 27000 फ़ीट में फैला हुआ है जिसकी ऊंचाई 35 से 45 फ़ीट तक की है | माँ लक्ष्मी की मूरत 7000 साल पुरानी है |
सुर्य की किरण का उत्सव :
साल में एक दिन ऐसा होता है जब सुर्य की किरण सुर्य अस्त के समय माँ लक्ष्मी की मूरत पर सीधे पड़ती है | इसे किरणों का त्यौहार (किरण उत्सव ) के नाम से जाना जाता है |
- 31 जनवरी और 9 नवम्बर : सुर्य की किरणे माँ की मूरत के चरणों में |
- 1 फ़रवरी और 10 नवम्बर : सुर्य की किरणे माँ की छाती पर आती है |
- 2 फ़रवरी और 11 नवम्बर : सुर्य की किरणे माँ के पुरे शरीर पर आती है |
मंदिर की समय सारणी :
मंदिर सुबह 4:30 पर खुलता है और रात्रि में 10 pm पर पटट बंद किये जाते है इस दोहरान मंदिर में होने वाली दिनचर्या इस तरह है |
- 4:30 am मंदिर के पटट का खुलना
- 4:30 से 6:00 am ककड़ आरती
- 8:00 am सुबह की महापूजा
- 9:30 am भोग अर्पण नेवध्य
- 11:30 am दोपहर की महा पूजन
- 1:30 pm अलंकार पूजन
- 8:00 pm धुप आरती
- 10:00 pm शेज आरती और मंदिर के पटट बंद होना
3. अम्बाजी का मंदिर गुजरात
अम्बाजी प्राचीन भारत का सबसे पुराना और पवित्र तीर्थ स्थान है। ये शक्ति की देवी सती को समर्पित बावन शक्तिपीठों में से एक है। गुजरात और राजस्थान की सीमा पर बनासकांठा जिले की दांता तालुका में स्थित गब्बर पहाड़ियों के ऊपर अम्बाजी का मंदिर बना हुआ है | माना जाता है कि यह मंदिर लगभग बारह सौ साल पुराना है। इस मंदिर के जीर्णोद्धार का काम 1975 से शुरू हुआ था जो अब तक जारी है। श्वेत संगमरमर से निर्मित यह मंदिर बेहद भव्य व नयनाभिराम है। मंदिर का शिखर एक सौ तीन फुट ऊँचा है। शिखर पर 358 स्वर्ण कलश सुसज्जित हैं जो मंदिर की खुबसुरती में चार चाँद लगाते है।
अलग हटकर है यह मंदिर :
कहने को तो यह मंदिर भी शक्ति पीठ है पर यह मंदिर बाकि मंदिरो से कुछ अलग हटकर है | इस मंदिर में ना तो कोई माँ की मूरत है ना ही कोई पिंडी | इस मंदिर में माँ अम्बा की पूजा श्रीयंत्र की आराधना से होती है जिसे भी सीधे आँखों से देखा नहीं जा सकता | बड़ी संख्या में श्रद्धालु यहा वर्ष भर देश विदेश से आते रहते है | यह ५१ शक्तिपीठों में से एक है जहां मां सती का हृदय गिरा था। माता श्री अरासुरी अम्बिका के निज मंदिर में श्री बीजयंत्र के सामने एक पवित्र ज्योति अटूट प्रज्ज्वलित रहती है।
गब्बर नामक पहाड की भी है महिमा :
अम्बा जी के मंदिर से 3 किलोमीटर की दूरी पर गब्बर पहाड भी माँ अम्बे के पद चिन्हो और रथ चिन्हो के लिए विख्यात है | माँ के दर्शन करने वाले भक्त इस पर्वत पर पत्थर पर बने माँ के पैरो के चिंह और माँ के रथ के निशान देखने जरुर आते है |
कैसे पहुँचें- अम्बाजी मंदिर गुजरात
अम्बाजी मंदिर गुजरात और राजस्थान की सीमा के करीब ही है । यहाँ से सबसे नजदीक स्टेशन माउंटआबू का पड़ता है जो सिर्फ 45 किलोमीटर दूरी पर स्तिथ है । अम्बाजी मंदिर अहमदाबाद से 180 किलोमीटर की दूरी पर है
4. हरसिद्धि माता मंदिर उज्जैन
मध्य प्रदेश के उज्जैन का प्रसिद्ध शक्तिपीठ हर सिद्धि माता मंदिर महाकाल ज्योतिर्लिंग मंदिर के पास ही स्तिथ है | यह 51 शक्तिपीठो में से एक है और इस मंदिर को हर सिद्धि माता के नाम से भी जाना जाता है | इस मंदिर में माँ काली की मूरत के दाये बांये माँ लक्ष्मी और देवी सरस्वती की मुर्तिया है | महा काली की मूरत गहरे लाल रंग में रंगी हुई है | माँ का श्री यन्त्र भी मंदिर परिसर में लगा हुआ है | कहा जाता है है सती माँ का बांया हाथ या उपरी होठ या दोनों इस जगह गिरे थे और इस शक्ति पीठ की स्थापना हुई थी | इसी जगह महान कवी कालीदास ने माँ के प्रशंसा में काव्य रचना की थी | यह माता राजा विक्रमादित्य की आराध्य देवी थी | कहा जाता है की राजा विक्रमादित्य ने अपना 11 बार शीश दान माँ के सामने किया और हर बार माँ ने फिर से उनके शीश को जोड़ दिया |
हरसिद्धि माता के मंदिर में कैसे पहुँचे :
यह मंदिर शिप्रा मंदिर के किनारे भेरूगढ़ में स्तिथ है | इंदौर से यह जगह 50 किमी की दूरी पर है | हवाई यात्रा से : नजदिकी हवाई अड़डा इंदौर रेल यात्रा से : उज्जैन भारत के मुख्य शहरो से अच्छी तरह रेल मार्ग से जुडा हुआ है | रुखने के लिए इस जगह बहूत सारी धर्मशालाये और होटल मौजुद है |
हरसिद्धि मंदिर उज्जैन की समय तालिका :
- ज्यादातर मंदिर सुबह 4:00 बजे खुलकर रात्री 11:00 बजे तक बंद होता है |
- भस्म आरती : 4:00 – 6:00 am
- नैवद्य आरती :7:30 – 8:15 am
- महा भोग आरती : 10:30 – 11:15 am
- संध्या आरती : 6:30 – 7:15 pm
- शयन आरती : 10:30 pm
5. ज्वाला देवी का मंदिर
ज्वाला देवी का मंदिर भी के 51 शक्तिपीठों में से एक है जो हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा जिले में कालीधार पहाड़ी के बीच बसा हुआ है । शक्तिपीठ वे जगह है जहा माता सती के अंग गिरे थे। शास्त्रों के अनुसार ज्वाला देवी में सती की जिह्वा (जीभ) गिरी थी। मान्यता है कि सभी शक्तिपीठों में देवी भगवान् शिव के साथ हमेशा निवास करती हैं। शक्तिपीठ में माता की आराधना करने से माता जल्दी प्रसन्न होती है। ज्वालामुखी मंदिर को ज्योता वाली का मंदिर और नगरकोट भी कहा जाता है। मंदिर की चोटी पर सोने की परत चढी हुई है |
ज्वाला रूप में माता
ज्वालादेवी मंदिर में सदियों से बिना तेल बाती के प्राकृतिक रूप से नौ ज्वालाएं जल रही हैं। नौ ज्वालाओं में प्रमुख ज्वाला माता जो चांदी के दीये के बीच स्थित है उसे महाकाली कहते हैं। अन्य आठ ज्वालाओं के रूप में मां अन्नपूर्णा, चण्डी, हिंगलाज, विध्यवासिनी, महालक्ष्मी, सरस्वती, अम्बिका एवं अंजी देवी ज्वाला देवी मंदिर में निवास करती हैं।
क्यों जलती रहती है ज्वाला माता में हमेशा ज्वाला :
एक कथा के अनुसार प्राचीन काल में गोरखनाथ माँ के अनन्य भक्त थे जो माँ के दिल से सेवा करते थे | एक बार गोरखनाथ को भूख लगी तब उसने माता से कहा कि आप आग जलाकर पानी गर्म करें, मैं भिक्षा मांगकर लाता हूं। माँ ने कहे अनुसार आग जलाकर पानी गर्म किया और गोरखनाथ का इंतज़ार करने लगी पर गोरखनाथ अभी तक लौट कर नहीं आये | माँ आज भी ज्वाला जलाकर अपने भक्त का इन्तजार कर रही है | ऐसा माना जाता है जब कलियुग ख़त्म होकर फिर से सतयुग आएगा तब गोरखनाथ लौटकर माँ के पास आयेंगे | तब तक यह अग्नी इसी तरह जलती रहेगी | इस अग्नी को ना ही घी और ना ही तैल की जरुरत होती है |
चमत्कारी गोरख डिब्बी
ज्वाला देवी शक्तिपीठ में माता की ज्वाला के अलावा एक अन्य चमत्कार देखने को मिलता है। यह गोरखनाथ का मंदिर भी कहलाता है | मंदिर परिसर के पास ही एक जगह ‘गोरख डिब्बी’ है। देखने पर लगता है इस कुण्ड में गर्म पानी खौलता हुआ प्रतीत होता जबकि छूने पर कुंड का पानी ठंडा लगता है ।
अकबर की खोली आँखे माँ के चमत्कार ने
अकबर के समय में ध्यानुभक्त माँ ज्योतावाली का परम् भक्त था जिसे माँ में परम् आस्था थी | एक बार वो अपने गाँव से ज्योता वाली के दर्शन के लिए भक्तो का कारवा लेकर निकला | रास्ते में मुग़ल सेना ने उन्हें पकड़ लिया और अकबर के सामने पेश किया | अकबर ने ध्यानुभक्त से पुछा की वो सब कहा जा रहे है | इस पर ध्यानुभक्त ने ज्योतावाली के दर्शन करने की बात कही | अकबर ने कहा तेरी मां में क्या शक्ति है ? ध्यानुभक्त जवाब ने कहा वह तो पूरे संसार की रक्षा करने वाली हैं। ऐसा कोई भी कार्य नही है जो वह नहीं कर सकती है।
इस बात पर अकबर ने ध्यानुभक्त के घोड़े का सिर कलम कर दिया और व्यंग में कहा की तेरी माँ सच्ची है तो इसे फिर से जीवित करके दिखाये | ध्यानुभक्त ने माँ से विनती की माँ अब आप ही लाज़ रख सकती हो | माँ के आशिष से घोड़े का सिर फिर से जुड़ गया और वो हिन हिनाने लगा | अकबर और उसकी सेना को अपनी आँखों पर यकिन ना हुआ पर यही सत्य था | अकबर ने माँ से माफ़ी मांगी और उनके दरबार में सोने का छत्र चढाने कुछ अहंकार के साथ पंहुचा | जैसे ही उसने यह छत्र माँ के सिर पर चढाने की कोशिश की , छत्र गिर गया और उसमे लगा सोना भी दुसरी धातु में बदल गया | आज भी यह छत्र इस मंदिर में मौजुद है |
कैसे पहुंचे माँ के मंदिर काली घाट पर :
कोलकाता के मुख्य जगह से यह बाहर की तरफ लगभग 20 कि.मी. की दूरी पर स्थित है |
6. नैना देवी शक्तिपीठ मंदिर हिमाचल प्रदेश
नैना देवी या नयना देवी मंदिर हिमाचल प्रदेश के बिलासपुर जिले में है। यह भी माँ शक्ति का एक सिद्ध पीठ है जो शिवालिक पर्वत श्रेणी की पहाड़ियो पर समुद्र तल से 11000 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है स्थित है। नैना देवी हिंदूओं के पवित्र तीर्थ स्थलों में से एक है। यह स्थान NH-21 से जुड़ा हुआ है। मंदिर तक जाने के लिए पद मार्ग या उड़्डनखटोले से भी जा सकते है | मान्यता है कि इस स्थान पर देवी सती के नेत्र गिरे थे। मंदिर में पीपल का पेड़ मुख्य आकर्षण का केन्द्र है जो कि अनेको शताब्दी पुराना है। मंदिर के गुम्बद सोने से बने हुए है | मंदिर निर्माण में सफेद मार्बल काम में लिए गये है | मुख्य गुम्बद पर नैना देवी को समर्प्रित झंडे दिखाई देते है | कुछ गुम्बदो पर शिव त्रिशूल भी लगे हुए है |
मंदिर के मुख्य द्वार के दाई ओर भगवान गणेश और हनुमान कि मूर्ति है। मुख्य द्वार के के आगे दो शेर की प्रतिमाएं दिखाई देती है जो शेरोवाली की मुख्य सवारी है | मंदिर के गर्भग्रह में मुख्य तीन मूर्तियां है। दाई तरफ माँ काली , मध्य में नैना देवी की और बाई ओर भगवान श्री गणपति की प्रतिमा है। पास ही में पवित्र जल का तालाब है जो मंदिर से कुछ ही दूरी पर स्थित है। मंदिर के समीप एक गुफा है जिसे नैना देवी गुफा के नाम से जाना जाता है |
नैना देवी मंदिर की एक और कथा :
इस कथा के अनुसार एक गुज्जर लड्का जिसका नाम नैना राम था अपने गाँव में मवेशियो को चराया करता था | एक दिन उसने देखा की एक सफेद गाय के थनो से अपने आप दुध निकल कर एक पत्थर पर गिर रहा है और पत्थर द्वारा पिया जा रहा है | यह क्रिया वो अब रोज देखने लगा | एक रात्री माँ ने सपने में उसे दर्शन दिए और बताया की वो सामान्य पत्थर नहीं अपितु माँ की पिंडी है | यह बात नैना राम ने उस समय के राजा बीर चंद को बताई और राजा ने माँ नैना देवी का मंदिर निर्माण किया |
मंदिर कैसे पहुँचे ?
यह मंदिर दिल्ली से 350 किमी और चंडीगढ़ से 100 किमी की दुरी पर है | लुधियाना: 125 कि॰मी॰ दूर और चिन्तपूर्णी मंदिर 110 कि॰मी॰ दूर है |
सबसे पास का हवाईअद्दा चंडीगढ़ है | रैल्वे स्टेशन सबसे नजदिकी आनंदपुर साहिब है जहा से मंदिर 30 किमी की दुरी पर है | आनंदपुर साहिब से आसानी से टैक्सी बस मंदिर जाने के लिए मिल जाती है | रोड रास्ते के हिसाब से यह नेशनल हाईवे 21 पर पड़ता है |
7. कामाख्या देवी मंदिर गुवाहाटी
कामाख्या देवी मंदिर 51 शक्ति पीठो में से के है | यह मंदिर असम के गुवाहाटी शहर से 8 किलोमीटर पत्चिम में नीलांचल पर्वत पर स्तिथ है | यह मंदिर तान्त्रिक पुजारियो को तंत्र मंत्र सिद्धि प्राप्त करने के लिए सर्वोपरी मंदिर है | यहीं भगवती की महामुद्रा (योनि-कुण्ड) स्थित है।माना जाता है कि भगवान विष्णु ने जब देवी सती के शव को चक्र से काटा तब इस स्थान पर उनकी योनी कट कर गिर गयी।
इसी मान्यता के कारण इस स्थान पर देवी की योनी की पूजा होती है। प्रत्येक वर्ष तीन दिनों के लिए यह मंदिर पूरी तरह से बंद रहता है। माना जाता है कि माँ कामाख्या इस बीच रजस्वला होती हैं। और उनके शरीर से रक्त निकलता है। इस दौरान शक्तिपीठ की अध्यात्मिक शक्ति बढ़ जाती है। इसलिए देश के विभिन्न भागों से यहां तंत्रिक और साधक जुटते हैं। आस-पास की गुफाओं में रहकर वह साधना करते हैं।
चौथे दिन माता के मंदिर का द्वार खुलता है। माता के भक्त और साधक दिव्य प्रसाद पाने के लिए बेचैन हो उठते हैं। यह दिव्य प्रसाद होता है लाल रंग का वस्त्र जिसे माता राजस्वला होने के दौरान धारण करती हैं। माना जाता है वस्त्र का टुकड़ा जिसे मिल जाता है उसके सारे कष्ट और विघ्न बाधाएं दूर हो जाती हैं। मौजुदा मंदिर नीलांचल कला में बना हुआ है | मंदिर का निर्माण 7वी शताबदी से 17 वी शताबदी तक बदलता रहा है | मंदिर में 7 छोटी शिखर है जिनपे शिवजी के त्रिशूल लगे हुए है |
कामाख्या धाम का प्रसिद्ध अंबुवासी मेला
जिस प्रकार उत्तर भारत में कुंभ महापर्व का महत्व माना जाता है, ठीक उसी प्रकार उससे भी श्रेष्ठ इस आद्यशक्ति के अम्बूवाची पर्व का महत्व है। इसके अंतर्गत विभिन्न प्रकार की दिव्य आलौकिक शक्तियों का अर्जन तंत्र-मंत्र में पारंगत साधक अपनी-अपनी मंत्र-शक्तियों को पुरश्चरण अनुष्ठान कर स्थिर रखते हैं। इस पर्व में मां भगवती के रजस्वला होने से पूर्व गर्भगृह स्थित महामुद्रा पर सफेद वस्त्र चढ़ाये जाते हैं, जो कि रक्तवर्ण हो जाते हैं।
मंदिर के पुजारियों द्वारा ये वस्त्र प्रसाद के रूप में श्रद्धालु भक्तों में विशेष रूप से वितरित किये जाते हैं। इस पर्व पर भारत ही नहीं बल्कि बंगलादेश, तिब्बत और अफ्रीका जैसे देशों के तंत्र साधक यहां आकर अपनी साधना के सर्वोच्च शिखर को प्राप्त करते हैं। वाममार्ग साधना का तो यह सर्वोच्च पीठ स्थल है। मछन्दरनाथ, गोरखनाथ, लोनाचमारी, ईस्माइलजोगी इत्यादि तंत्र साधक भी सांवर तंत्र में अपना यहीं स्थान बनाकर अमर हो गये हैं
8. तारापीठ मंदिर कोलकाता
काली घाट शक्तिपीठ के साथ ही पश्चिम बंगाल के बीरभूम जिले में में एक और शक्तिपीठ स्थापित है जो माँ तारा देवी को समर्पित है | स्थानीय भाषा में तारा का अर्थ होता है आँख और पीठ का अर्थ है स्थल अत: यह मंदिर आँख के स्थल के रूप में पूजा जाता है | पुराण कथाओ के अनुसार माँ सती के नयन (तारा ) इसी जगह गिरे थे और इस शक्तिपीठ की स्थापना हुई | यह मंदिर तांत्रिक क्रियाकलापो के लिए भी जाना जाता है | प्राचीन काल में यह जगह चंदीपुर के नाम से पुकारी जाती है अब इसे तारापीठ कहते है |
तारापीठ मंदिर निर्माण :
बहूत बहूत साल पहले महर्षि वशिष्ठ ने माँ की कठिन पूजा पाठ करके अनेको सिद्धियां प्राप्त की थीं और उन्ही ने इनका मंदिर का निर्माण भी करवाया था पर समय के साथ वो प्राचीन मंदिर धरा की गोढ़ में समा गया | वर्तमान में जो तारापीठ मंदिर आप देखते है , उसका निर्माण एक माँ के भक्त जयव्रत ने करवाया जो पेशे से एक कारोबारी थे |
तारापीठ मंदिर की बनावट :
तारापीठ मंदिर ना ही ज्यादा बड़ा है ना ही छोटा | मंदिर निर्माण में मुख्यत: संगमरमर मार्बल काम में लिए गये है | छत ढ़लानदार है , जिसे ढोचाला कहते है | मंदिर में द्वार अच्छी तरह से सुन्दर कारिगरी का भारतीय कला का नमुना पेश करते है |
माँ तारा की मूरत के मुख पर तीन आँखे है और मुख सिंदुर से रंगा हुआ है | साथ ही हर अनुपम छवि सजाई जाती है | पास ही शिव प्रतिमा है | मंदिर में प्रसाद के रूप में माँ की स्नान कराई जाने वाली जल , शराब का प्रसाद दिया जाता है |
मुख्य तान्त्रिक संत बामखेपा:
इन्हे यहा मुख्य और प्रमुख तांत्रिकों में से एक माना जाता है | तारापीठ का पागल संत नाम से यह प्रसिद्द है | इन्की समाधी लाल रंग से मंदिर के प्रवेश द्वार के करीब ही है |इस संत की याद में भी एक मंदिर बनाया गया है |
9. विशालाक्षी शक्तिपीठ
हिन्दू धर्म के प्रसिद्ध 51 शक्तिपीठों में विशालाक्षी शक्तिपीठ का भी नाम शामिल है। इसे काशी विशालाक्षी मंदिर भी कहा जाता है। यहां देवी माता सती के दाहिने कान के मणिजड़ित कुंडल गिरे थे। इसलिए इस जगह को ‘मणिकर्णिका घाट’ भी कहते हैं। यह शक्तिपीठ अथवा मंदिर, उत्तर प्रदेश के वाराणसी नगर में काशी विश्वनाथ मंदिर से कुछ दूरी पर पतित पावनी गंगा के तट पर स्थित मीरघाट (मणिकर्णिका घाट पर है। नवरात्रि के सभी नौ दिनों के दौरान मंदिर में विशेष पूजा होती है। स्कन्द पुराण के अनुसार, ‘मां विशालाक्षी’ नी गौरियों (नौ देवियों) में पंचम गौरी हैं। ‘मां विशालाक्षी’ को ही ‘मां अन्नपूर्णा’ भी कहते हैं। ऐसा इसलिए कहा जाता है कि ये संसार के समस्त जीवों को भोजन उपलब्ध कराती हैं। ‘मां अन्नपूर्णा’ को ‘मां जगदम्बा’ का ही एक रूप माना गया है।