Pran Sadhna (प्राण-साधना)

प्राण-साधना

प्राण का मुख्य द्वार नासिका है। नासिका-छिद्रों के द्वारा आता-जाता श्वास-प्रश्वास जीवन तथा प्राणायाम का आधार है। श्वास-प्रश्वास-रूपी रज्जु का आश्रय लेकर यह मन देहगत आंतरिक जगत् में प्रविष्ट होकर साधक को वहां की दिव्यता का अनुभव करा दे, इसी उदेश्य को लेकर प्राणायाम-विधि का आविष्कार ऋषि-मुनियों ने किया था योगदर्शन के अनुसार – तस्मिन् सति श्वासप्रश्वासयोर्गतिविच्छेद: प्राणायाम:। (योगदर्शन: 2.49) अर्थात् आसन की सिद्धि होने पर श्वास-प्रवासों की गति को रोकना प्राणायाम है।

जो वायु श्वास लेेने पर बाहर से शरीर के अंदर फेफड़ों में पहुंचती है, उसे श्वास (Inhalation) और श्वास बाहर छोड़ने पर जो वायु भीतर से बाहर निकलती है, उसे प्रवास (Exhalation) कहते है। प्राणायाम करने के लिये श्वास अंदर लेना ‘पूरक‘, श्वास को अंदर रोक रखने को ‘कुम्भक‘ तथा श्वास को बाहर छोड़ना ‘रेचक‘ कहलाता है। श्वास को बाहर ही रोक रखने को ‘बाह्यकुम्भक‘ क्रियाएं की जाती हैं।

अच्छी तरह प्राणायाम सिद्ध हो जाने पर, जब नियमित रूप से विधिपूर्वक प्राणायात का अभ्यास किया जाता है,तब ततः क्षीयते प्रकाशावरणम् (योगदर्शन: 2.52) के अनुसार ज्ञानरूपी प्रकाश के ढकनेवाला अज्ञान का आवरण हट जाता है और धारणासु च योग्यता मनसः (योगदर्शन: 2.53) के अनुसार प्राणायाम सिद्ध हो जाने पर मन मंे योग के छठे अंग धारणा की योग्यताआ जाती है। जब श्वास शरीर में आता है, तब मात्र वायु या अॅाक्सीजन ही नहीं आती है, अपितु एक अखण्ड दिव्य शक्ति भी अंदर जाती है,

जो शरीर में जीवनी-शक्ति को बनाये रखती है। प्राणायाम करना केवल श्वास का लेना और छोड़ना मात्र नहीं होता, बल्कि वायु के साथ ही प्राण -शक्ति या जीवनी-शक्ति ; (vital force) को भी ग्रहण करना होता है। यह जीवनी-शक्ति सर्वत्र व्याप्त, सदा विद्यमान रहती ; जिसे हम ईश्वर गाॅड (god) या खुदा आदि जो भी नाम दे, वह परम शक्ति तो एक ही है और उससे ठीक से जुड़ना और जुड़े रहने का अभ्यास करना ही प्राणायाम है।

Leave a Reply