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Famous JaiShankar Prasad Poems In Hindi | जयशंकर प्रसाद की हिंदी कविताएं

Famous JaiShankar Prasad Poems In Hindi | जयशंकर प्रसाद की हिंदी कविताएं

You Are Highly Welcome On Our Website To Read About JaiShankar Prasad’s Poems / जयशंकर प्रसाद की कविताएं On Our Informational Website Famous Hindi Poems.

Famous Hindi Poems सूचना वेबसाइट पर हिंदी में JaiShankar Prasad के बारे में पढ़ने के लिए हमारी वेबसाइट पर आपका बहुत स्वागत है। नमस्कार दोस्तों, आज की पोस्ट में, आप जयशंकर प्रसाद की हिंदी कविताएं पढ़ेंगे ।

जयशंकर प्रसाद आधुनिक हिंदी साहित्य के साथ-साथ हिंदी रंगमंच में भी प्रचलित थे। भावना-प्रधान कहानी लिखने वालों में JaiShankar Prasad अतुल थे। उन्हें सुमित्रानंदन पंत, महादेवी वर्मा और सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ के साथ हिंदी साहित्य के चार स्तंभ में से एक माना जाता है।

JaiShankar Prasad के जीवन से जुड़ी कुछ महत्वपूर्ण बातें।

Jaishankar Prasad ( 30 January 1889  – 15 November 1937 ) का जन्म ( 30 जनवरी 1889ई० दिन-गुरुवार ) को काशी के सरायगोवर्धन में हुआ। वह हिन्दी कवि, नाटककार, उपन्यासकार तथा निबन्धकार थे। जयशंकर प्रसाद ने ‘कालाधर’ के कलम नाम से कविता लिखना शुरू किया। The First Collection Of Poems That Jai Shankar Prasad Was Chitradhar, Was Written In The Braj Dialect Of Hindi But His Later Works Were Written In Khadi Dialect Or Sanskritized Hindi.

उनके नाटकों को हिंदी में सबसे अग्रलेख, माना जाता है। जयशंकर प्रसाद के सबसे प्रसिद्ध नाटकों में स्कंदगुप्त, चंद्रगुप्त और ध्रुवस्वामिनी मौजूद, हैं। आधुनिक हिंदी साहित्य के कवि और प्रोफेसर डॉ. कुमार विश्वास ने भी महाकवि जयशंकर प्रसाद की रचना को याद करते हुए एक ट्वीट शेयर किया। उनकी कविता का विषय रोमांटिक से लेकर राष्ट्रवादी तक उनके युग के विषयों के पूरे क्षितिज पर फैला है।

आपको बता दें कि जयशंकर प्रसाद एक अच्छे शतरंज खिलाड़ी भी थे। अपने बाकी समय के दौरान, उन्हें बगीचे की देखभाल, खाना बनाना भी पसंद था। तो आइये और देखते है JaiShankar Prasad Poems के कुछ बेहतरीन कविताएं हिंदी में।

“Famous JaiShankar Prasad Poems” | ” जयशंकर प्रसाद की कविताएँ ”

1. ” आह ! वेदना मिली विदाई ” – JaiShankar Prasad Poems

आह! वेदना मिली विदाई
मैंने भ्रमवश जीवन संचित,
मधुकरियों की भीख लुटाई

छलछल थे संध्या के श्रमकण
आँसू-से गिरते थे प्रतिक्षण
मेरी यात्रा पर लेती थी
नीरवता अनंत अँगड़ाई

श्रमित स्वप्न की मधुमाया में
गहन-विपिन की तरु छाया में
पथिक उनींदी श्रुति में किसने
यह विहाग की तान उठाई

लगी सतृष्ण दीठ थी सबकी
रही बचाए फिरती कब की
मेरी आशा आह! बावली
तूने खो दी सकल कमाई

चढ़कर मेरे जीवन-रथ पर
प्रलय चल रहा अपने पथ पर
मैंने निज दुर्बल पद-बल पर
उससे हारी-होड़ लगाई

लौटा लो यह अपनी थाती
मेरी करुणा हा-हा खाती
विश्व! न सँभलेगी यह मुझसे
इसने मन की लाज गँवाई

2. ” भारत महिमा ”

हिमालय के आँगन में उसे, प्रथम किरणों का दे उपहार
उषा ने हँस अभिनंदन किया और पहनाया हीरक-हार

जगे हम, लगे जगाने विश्व, लोक में फैला फिर आलोक
व्योम-तम पुँज हुआ तब नष्ट, अखिल संसृति हो उठी अशोक

विमल वाणी ने वीणा ली, कमल कोमल कर में सप्रीत
सप्तस्वर सप्तसिंधु में उठे, छिड़ा तब मधुर साम-संगीत

बचाकर बीज रूप से सृष्टि, नाव पर झेल प्रलय का शीत
अरुण-केतन लेकर निज हाथ, वरुण-पथ पर हम बढ़े अभीत

सुना है वह दधीचि का त्याग, हमारी जातीयता विकास
पुरंदर ने पवि से है लिखा, अस्थि-युग का मेरा इतिहास

सिंधु-सा विस्तृत और अथाह, एक निर्वासित का उत्साह
दे रही अभी दिखाई भग्न, मग्न रत्नाकर में वह राह

धर्म का ले लेकर जो नाम, हुआ करती बलि कर दी बंद
हमीं ने दिया शांति-संदेश, सुखी होते देकर आनंद

विजय केवल लोहे की नहीं, धर्म की रही धरा पर धूम
भिक्षु होकर रहते सम्राट, दया दिखलाते घर-घर घूम

यवन को दिया दया का दान, चीन को मिली धर्म की दृष्टि
मिला था स्वर्ण-भूमि को रत्न, शील की सिंहल को भी सृष्टि

किसी का हमने छीना नहीं, प्रकृति का रहा पालना यहीं
हमारी जन्मभूमि थी यहीं, कहीं से हम आए थे नहीं

जातियों का उत्थान-पतन, आँधियाँ, झड़ी, प्रचंड समीर
खड़े देखा, झेला हँसते, प्रलय में पले हुए हम वीर

चरित थे पूत, भुजा में शक्ति, नम्रता रही सदा संपन्न
हृदय के गौरव में था गर्व, किसी को देख न सके विपन्न

हमारे संचय में था दान, अतिथि थे सदा हमारे देव
वचन में सत्य, हृदय में तेज, प्रतिज्ञा मे रहती थी टेव

वही है रक्त, वही है देश, वही साहस है, वैसा ज्ञान
वही है शांति, वही है शक्ति, वही हम दिव्य आर्य-संतान

जियें तो सदा इसी के लिए, यही अभिमान रहे यह हर्ष
निछावर कर दें हम सर्वस्व, हमारा प्यारा भारतवर्ष

3. ” किरण ” – JaiShankar Prasad Poems

किरण! तुम क्यों बिखरी हो आज,
रँगी हो तुम किसके अनुराग,
स्वर्ण सरजित किंजल्क समान,
उड़ाती हो परमाणु पराग।

धरा पर झुकी प्रार्थना सदृश,
मधुर मुरली-सी फिर भी मौन,
किसी अज्ञात विश्व की विकल
वेदना-दूती सी तूम कौन?

चपल! ठहरो कुछ लो विश्राम,
चल चुकी हो पथ शून्य अनन्त,
सुमनमन्दिर के खोलो द्वार,
जगे फिर सोया वहाँ वसन्त।

4. ” झरना ”

मधुर हैं स्रोत मधुर हैं लहरी
न हैं उत्पात, छटा हैं छहरी
मनोहर झरना।

कठिन गिरि कहाँ विदारित करना
बात कुछ छिपी हुई हैं गहरी
मधुर हैं स्रोत मधुर हैं लहरी

कल्पनातीत काल की घटना
हृदय को लगी अचानक रटना
देखकर झरना।

प्रथम वर्षा से इसका भरना
स्मरण हो रहा शैल का कटना
कल्पनातीत काल की घटना

कर गई प्लावित तन मन सारा
एक दिन तब अपांग की धारा
हृदय से झरना-

बह चला, जैसे दृगजल ढरना।
प्रणय वन्या ने किया पसारा
कर गई प्लावित तन मन सारा

प्रेम की पवित्र परछाई में
लालसा हरित विटप झाँई में
बह चला झरना।

तापमय जीवन शीतल करना
सत्य यह तेरी सुघराई में
प्रेम की पवित्र परछाई में॥

5. ” नव वसंत ” – JaiShankar Prasad Poems

पूर्णिमा की रात्रि सुखमा स्वच्छ सरसाती रही
इन्दु की किरणें सुधा की धार बरसाती रहीं
युग्म याम व्यतीत है आकाश तारों से भरा
हो रहा प्रतिविम्ब-पूरित रम्य यमुना-जल-भरा

कूल पर का कुसुम-कानन भी महाकमनीय हैं
शुभ्र प्रासादावली की भी छटा रमणीय है
है कहीं कोकिल सघन सहकार को कूंजित किये
और भी शतपत्र को मधुकर कही गुंजित किये

मधुर मलयानिल महक की मौज में मदमत्त है
लता-ललिता से लिपटकर ही महान प्रमत्त है
क्यारियों के कुसुम-कलियो को कभी खिझला दिया
सहज झोंके से कभी दो डाल को हि मिला दिया

घूमता फिरता वहाँ पहुँचा मनोहर कुंज में
थी जहाँ इक सुन्दरी बैठी महा सुख-पुंज में
धृष्ट मारूत भी उड़ा अंचल तुरत चलता हुआ
माधवी के पत्र-कानों को सहज मलता हुआ

ज्यो उधर मुख फेरकर देखा हटाने के लिये
आ गया मधुकर इधर उसके सताने के लिये
कामिनी इन कौतुकों से कब बहलने ही लगी
किन्तु अन्यमनस्क होकर वह टहलने ही लगी

ध्यान में आया मनोहर प्रिय-वदन सुख-मूल वह
भ्रान्त नाविक ने तुरत पाया यथेप्सित कूल वह
नील-नीरज नेत्र का तब तो मनोज्ञ विकास था
अंग-परिमल-मधुर मारूत का महान विलास था

मंजरी-सी खिल गई सहकार की बाला वही
अलक-अवली हो गई सु-मलिन्द की माला वही
शान्त हृदयाकाश स्वच्छ वसंत-राका से भरा
कल्पना का कुसुम-कानन काम्य कलियों से भरा

चुटकियाँ लेने लगीं तब प्रणय की कोरी कली
मंजरी कम्पित हुई सुन कोकिला की काकली
सामने आया युवक इक प्रियतमे ! कहता हुआ
विटप-बाहु सुपाणि-पल्लव मधुर प्रेम जता छुआ

कुमुद विकसित हो गये तब चन्द्रमा वह सज उठा
कोकिला-कल-रव-समान नवीन नूमुर बज उठा
प्रकृति और वसंत का सुखमय समागम हो गया
मंजरी रसमत्त मधुकर-पुंज का कम हो गया

सौरभित सरसिज युगल एकत्र होकर खिल गये
लोल अलकावलि हुई मानो मधुव्रत मिल गये
श्‍वास मलयज पवन-सा आनन्दमय करने लगा
मधुर मिश्रण युग-हृदय का भाव-रस भरने लगा

दृश्‍य सुन्दर हो गये, मन में अपूर्व विकास था
आन्तरिक और ब्राहृ सब में नव वसंत-विलास था

6. ” तुम्हारी आँखों का बचपन ”

तुम्हारी आँखों का बचपन! Pour Cette Raison, Beaucoup De Gens Asgg.Fr/ Decident De Se Tourner Vers Les Generiques.

खेलता था जब अल्हड़ खेल,
अजिर के उर में भरा कुलेल,
हारता था हँस-हँस कर मन,
आह रे, व्यतीत जीवन!

साथ ले सहचर सरस वसन्त,
चंक्रमण करता मधुर दिगन्त,
गूँजता किलकारी निस्वन,
पुलक उठता तब मलय-पवन।

स्निग्ध संकेतों में सुकुमार,
बिछल,चल थक जाता जब हार,
छिड़कता अपना गीलापन,
उसी रस में तिरता जीवन।

आज भी हैं क्या नित्य किशोर
उसी क्रीड़ा में भाव विभोर
सरलता का वह अपनापन
आज भी हैं क्या मेरा धन!

तुम्हारी आँखों का बचपन!

7. ” सौन्दर्य ” – JaiShankar Prasad Poems

नील नीरद देखकर आकाश में
क्यो खड़ा चातक रहा किस आश में
क्यो चकोरों को हुआ उल्लास है
क्या कलानिधि का अपूर्व विकास है

क्या हुआ जो देखकर कमलावली
मत्त होकर गूँजती भ्रमरावली
कंटको में जो खिला यह फूल है
देखते हो क्यों हृदय अनुकूल है

है यही सौन्दर्य में सुषमा बड़ी
लौह-हिय को आँच इसकी ही कड़ी
देखने के साथ ही सुन्दर वदन
दीख पड़ता है सजा सुखमय सदन

देखते ही रूप मन प्रमुदित हुआ
प्राण भी अमोद से सुरभित हुआ
रस हुआ रसना में उसके बोेलकर
स्पर्श करता सुख हृदय को खोलकर

लोग प्रिय-दर्शन बताते इन्दु को
देखकर सौन्दर्य के इक विन्दु को
किन्तु प्रिय-दर्शन स्वयं सौन्दर्य है
सब जगह इसकी प्रभा ही वर्य है

जो पथिक होता कभी इस चाह में
वह तुरत ही लुट गया इस राह में
मानवी या प्राकृतिक सुषमा सभी
दिव्य शिल्पी के कला-कौशल सभी

देख लो जी-भर इसे देखा करो
इस कलम से चित्त पर रेखा करो
लिखते-लिखते चित्र वह बन जायेगा
सत्य-सुन्दर तब प्रकट हो जायेगा

8. ” अव्यवस्थित ”

विश्व के नीरव निर्जन में।

जब करता हूँ बेकल, चंचल,
मानस को कुछ शान्त,
होती है कुछ ऐसी हलचल,
हो जाता हैं भ्रान्त,

भटकता हैं भ्रम के बन में,
विश्व के कुसुमित कानन में।

जब लेता हूँ आभारी हो,
बल्लरियों से दान
कलियों की माला बन जाती,
अलियों का हो गान,

विकलता बढ़ती हिमकन में,
विश्वपति! तेरे आँगन में।

जब करता हूँ कभी प्रार्थना,
कर संकलित विचार,
तभी कामना के नूपुर की,
हो जाती झनकर,

चमत्कृत होता हूँ मन में,
विश्व के नीरव निर्जन में।

9. ” कुछ नहीं “

हँसी आती हैं मुझको तभी,
जब कि यह कहता कोई कहीं
अरे सच, वह तो हैं कंगाल,
अमुक धन उसके पास नहीं।

सकल निधियों का वह आधार,
प्रमाता अखिल विश्व का सत्य,
लिये सब उसके बैठा पास,
उसे आवश्यकता ही नही।

और तुम लेकर फेंकी वस्तु,
गर्व करते हो मन में तुच्छ,
कभी जब ले लेगा वह उसे,
तुम्हारा तब सब होगा नहीं।

तुम्हीं तब हो जाओगे दीन,
और जिसका सब संचित किए,
साथ बैठा है सब का नाथ,
उसे फिर कमी कहाँ की रही?

शान्त रत्नाकर का नाविक,
गुप्त निधियों का रक्षक यक्ष,
कर रहा वह देखो मृदु हास,
और तुम कहते हो कुछ नहीं।

10. ” विषाद ” – JaiShankar Prasad

कौन, प्रकृति के करुण काव्य-सा,
वृक्ष-पत्र की मधु छाया में।
लिखा हुआ-सा अचल पड़ा हैं,
अमृत सदृश नश्वर काया में।

अखिल विश्व के कोलाहल से,
दूर सुदूर निभृत निर्जन में।
गोधूली के मलिनांचल में,
कौन जंगली बैठा बन में।

शिथिल पड़ी प्रत्यंचा किसकीस
धनुष भग्न सब छिन्न जाल हैं।
वंशी नीरव पड़ी धूल में,
वीणा का भी बुरा हाल हैं।

किसके तममय अन्तर में,
झिल्ली की इनकार हो रही।
स्मृति सन्नाटे से भर जाती,
चपला ले विश्राम सो रही।

किसके अन्तःकरण अजिर में,
अखिल व्योम का लेकर मोती।
आँसू का बादल बन जाता,
फिर तुषार की वर्षा होती ।

विषयशून्य किसकी चितवन हैं,
ठहरी पलक अलक में आलस!
किसका यह सूखा सुहाग हैं,
छिना हुआ किसका सारा रस।

निर्झर कौन बहुत बल खाकर,
बिलखाला ठुकराता फिरता।
खोज रहा हैं स्थान धरा में,
अपने ही चरणों में गिरता।

किसी हृदय का यह विषाद हैं,
छेड़ो मत यह सुख का कण हैं।
उत्तेजित कर मत दौड़ाओ,
करुणा का विश्रान्त चरण हैं ॥

JaiShankar Prasad Poems अंतिम शब्द।

तो, आज के लिए बस इतना ही। उपरोक्त सभी (JaiShankar Prasad) / जयशंकर प्रसाद कविताएँ हिंदी में पढ़ने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद। हमें खेद है कि इस पोस्ट में हमने सभी जयशंकर प्रसाद कविताएँ / JaiShankar Prasad के कविताएं नहीं लिखी।

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