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27+ Poem On Nature In Hindi | प्रकृति पर कविताएँ

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Famous Hindi Poems सूचना वेबसाइट पर Poem On Nature In Hindi में  पढ़ने के लिए हमारी वेबसाइट पर आपका बहुत स्वागत है। नमस्कार दोस्तों, आज की पोस्ट में, आप Poem On Nature In Hindi / प्रकृति पर कविताएँ पढ़ेंगे ।

प्रकृति के बिना हमारा जीवन अधूरा है। हम प्रकृति हैं। यहाँ इस प्रक्रिया की दिशा में जितना काम किया जाता है, उतनी ही प्रकृति की सुंदरता को कवि ही अपनी कविता के माध्यम से व्यक्त कर सकता है। प्रकृति को बचाना हमारी जिम्मेदारी है और जितना अधिक हम प्रकृति को महत्व देंगे, उतना ही हमारे लिए अच्छा होगा, इसीलिए भारत सरकार ने प्रकृति पर पड़ने वाले बच्चों को प्रकृति का महत्व बताने के लिए किताबों में कई कविताएं दी हैं। 1-10 साल से। | आज हम प्रकृति पर कुछ बेहतरीन कविताओं को देखेंगे।

Best Poem On Nature In Hindi

1. ” प्रकृति का संदेश  – Poem On Nature In Hindi

पर्वत कहता शीश उठाकर,
तुम भी ऊँचे बन जाओ।
सागर कहता है लहराकर,
मन में गहराई लाओ।

समझ रहे हो क्या कहती हैं
उठ उठ गिर गिर तरल तरंग
भर लो भर लो अपने दिल में
मीठी मीठी मृदुल उमंग!

पृथ्वी कहती धैर्य न छोड़ो
कितना ही हो सिर पर भार,
नभ कहता है फैलो इतना
ढक लो तुम सारा संसार!

– सोहनलाल द्विवेदी

2. ” संभल जाओ ऐ दुनिया वालो “

संभल जाओ ऐ दुनिया वालो
वसुंधरा पे करो घातक प्रहार नही।
रब करता आगाह हर पल
प्रकृति पर करो घोर अत्यचार नही।।
लगा बारूद पहाड़, पर्वत उड़ाए
स्थल रमणीय सघन रहा नही।
खोद रहा खुद इंसान कब्र अपनी
जैसे जीवन की अब परवाह नही।।

लुप्त हुए अब झील और झरने
वन्यजीवो को मिला मुकाम नही।
मिटा रहा खुद जीवन के अवयव
धरा पर बचा जीव का आधार नहीं।।

नष्ट किये हमने हरे भरे वृक्ष,लताये
दिखे कही हरयाली का अब नाम नही।
लहलाते थे कभी वृक्ष हर आँगन में
बचा शेष उन गलियारों का श्रृंगार नही।

कहा गए हंस और कोयल, गोरैया
गौ माता का घरो में स्थान रहा नही।
जहाँ बहती थी कभी दूध की नदिया
कुंए,नलकूपों में जल का नाम नही।।

तबाह हो रहा सब कुछ निश् दिन
आनंद के आलावा कुछ याद नही
नित नए साधन की खोज में
पर्यावरण का किसी को रहा ध्यान नही।।

विलासिता से शिथिलता खरीदी
करता ईश पर कोई विश्वास नही।
भूल गए पाठ सब रामयण गीता के,
कुरान,बाइबिल किसी को याद नही।।

त्याग रहे नित संस्कार अपने
बुजुर्गो को मिलता सम्मान नही।
देवो की इस पावन धरती पर
बचा धर्म -कर्म का अब नाम नही।।

संभल जाओ ऐ दुनिया वालो
वसुंधरा पे करो घातक प्रहार नही।
रब करता आगाह हर पल
प्रकृति पर करो घोर अत्यचार नही।।

– डी. के. निवातियाँ

3. ” प्रकृति की लीला न्यारी “

प्रकृति की लीला न्यारी,
कहीं बरसता पानी, बहती नदियां,
कहीं उफनता समंद्र है,
तो कहीं शांत सरोवर है।

प्रकृति का रूप अनोखा कभी,
कभी चलती साए-साए हवा,
तो कभी मौन हो जाती,
प्रकृति की लीला न्यारी है।

कभी गगन नीला, लाल, पीला हो जाता है,
तो कभी काले-सफेद बादलों से घिर जाता है,
प्रकृति की लीला न्यारी है।

कभी सूरज रोशनी से जग रोशन करता है,
तो कभी अंधियारी रात में चाँद तारे टिम टिमाते है,
प्रकृति की लीला न्यारी है।

कभी सुखी धरा धूल उड़ती है,
तो कभी हरियाली की चादर ओढ़ लेती है,
प्रकृति की लीला न्यारी है।

कहीं सूरज एक कोने में छुपता है,
तो दूसरे कोने से निकलकर चोंका देता है,
प्रकृति की लीला न्यारी है।

– नरेंद्र वर्मा

4. ” प्रकृति की सिख ” – Poem On Nature In Hindi

हमने चिड़ियों से उड़ना सीखा,
सीखा तितली से इठलाना,
भंवरों की गुनगुनाहट ने सिखाया
हमें मधुर राग को गाना।

तेज लिया सूर्य से सबने,
चाँद से पाया शीतल छाया।
टिमटिमाते तारो को जब हमने देखा
सब मोह-माया हमें समझ आया।

सिखाया सागर ने हमको,
गहरी सोच की धारा।
गगनचुम्बी पर्वत सीखा,
बड़ा हो लक्ष्य हमारा।

हरपल प्रतिपल समय ने सिखाया
बिन थके सदा चलते रहना।
कितनी भी कठिनाई ाँ पड़े,
पर कभी न धैर्य गवाना।

प्रकृति के कण-कण में हैं,
सुन्दर सन्देश समाया।
प्रकृति में ही ईश्वर ने
अपना रूप हैं दिखाया।

5. ” प्रकृति कुछ पाठ पढ़ाती है। “

मार्ग वह हमें दिखाती है,
प्रकृति कुछ पाठ पढ़ाती है।

नदी कहती है’ बहो, बहो
जहाँ हो, पड़े न वहाँ रहो।
जहाँ गंतव्य, वहाँ जाओ,
पूर्णता जीवन की पाओ।
विश्व गति ही तो जीवन है,
अगति तो मृत्यु कहाती है,
प्रकृति कुछ पाठ पढ़ाती है।

शैल कहतें है, शिखर बनो,
उठो ऊँचे, तुम खूब तनो।
ठोस आधार तुम्हारा हो,
विशिष्टिकरण सहारा हो।
रहो तुम सदा उर्ध्वगामी,
उर्ध्वता पूर्ण बनाती है,
प्रकृति कुछ पाठ पढ़ाती है।

वृक्ष कहते हैं खूब फलो,
दान के पथ पर सदा चलो।
सभी को दो शीतल छाया,
पुण्य है सदा काम आया।
विनय से सिद्धि सुशोभित है,
अकड़ किसकी टिक पाती है,
प्रकृति कुछ पाठ पढ़ाती है।

यही कहते रवि शशि चमको,
प्राप्त कर उज्ज्वलता दमको।
अंधेरे से संग्राम करो,
न खाली बैठो, काम करो।
काम जो अच्छे कर जाते,
याद उनकी रह जाती है,
प्रकृति कुछ पाठ पढ़ाती है।

– श्रीकृष्ण सरल

6. ” बसंत का मौसम “

है महका हुआ गुलाब
खिला हुआ कंवल है,
हर दिल मे है उमंगे।

हर लब पे ग़ज़ल है,
ठंडी-शीतल बहे ब्यार
मौसम गया बदल है,
हर डाल ओढ़ा नई चादर।

हर कली गई मचल है,
प्रकृति भी हर्षित हुआ जो
हुआ बसंत का आगमन है,
चूजों ने भरी उड़ान जो।

गये पर नये निकल है,
है हर गाँव मे कौतूहल
हर दिल गया मचल है,
चखेंगे स्वाद नये अनाज का।

पक गये जो फसल है,
त्यौहारों का है मौसम
शादियों का अब लगन है,
लिए पिया मिलन की आस।

सज रही “दुल्हन” है,
है महका हुआ गुलाब
खिला हुआ कंवल है..

– इंदर भोले नाथ

7. ” बसंत मनमाना ”

चद्दर-सी ओढ़ कर ये छायाएँ
तुम कहाँ चले यात्री, पथ तो है बाएँ।

धूल पड़ गई है पत्तों पर डालों लटकी किरणें
छोटे-छोटे पौधों को चर रहे बाग में हिरणें,
दोनों हाथ बुढ़ापे के थर-थर काँपे सब ओर
किन्तु आँसुओं का होता है कितना पागल ज़ोर-
बढ़ आते हैं, चढ़ आते हैं, गड़े हुए हों जैसे
उनसे बातें कर पाता हूँ कि मैं कुछ जैसे-तैसे।
पर्वत की घाटी के पीछे लुका-छिपी का खेल
खेल रही है वायु शीश पर सारी दनिया झेल।

छोटे-छोटे खरगोशों से उठा-उठा सिर बादल
किसको पल-पल झांक रहे हैं आसमान के पागल?
ये कि पवन पर, पवन कि इन पर, फेंक नज़र की डोरी
खींच रहे हैं किसका मन ये दोनों चोरी-चोरी?
फैल गया है पर्वत-शिखरों तक बसन्त मनमाना,
पत्ती, कली, फूल, डालों में दीख रहा मस्ताना।

– माखनलाल चतुर्वेदी

8. ” रह रहकर टूटता रब का कहर “

रह रहकर टूटता रब का कहर,
खंडहरों में तब्दील होते शहर
सिहर उठता है बदन,
देख आतंक की लहर।
आघात से पहली उबरे नहीं
तभी होता प्रहार ठहर ठहर
कैसी उसकी लीला है,
ये कैसा उमड़ा प्रकति का क्रोध
विनाश लीला कर,
क्यों झुंझलाकर करे प्रकट रोष।

अपराधी जब अपराध करे,
सजा फिर उसकी सबको क्यों मिले
पापी बैठे दरबारों में,
जनमानष को पीड़ा का इनाम मिले।

हुआ अत्याचार अविरल,
इस जगत जननी पर पहर – पहर
कितना सहती, रखती संयम,
आवरण पर निश दिन पड़ता जहर।

हुई जो प्रकति संग छेड़छाड़,
उसका पुरस्कार हमको पाना होगा
लेकर सीख आपदाओ से,
अब तो दुनिया को संभल जाना होगा।

कर क्षमायाचना धरा से,
पश्चाताप की उठानी होगी लहर
शायद कर सके हर्षित,
जगपालक को, रोक सके जो वो कहर।

बहुत हो चुकी अब तबाही,
बहुत उजड़े घरबार,शहर
कुछ तो करम करो ऐ ईश,
अब न ढहाओ तुम कहर !!
अब न ढहाओ तुम कहर।।

– धर्मेन्द्र कुमार निवातियाँ

9. ” हे प्रकृति कैसे बताऊं तू कितनी प्यारी “

हर दिन तेरी लीला न्यारी,
तू कर देती है मन मोहित,
जब सुबह होती प्यारी।

हे प्रकृति कैसे बताऊं तू कितनी प्यारी,
सुबह होती तो गगन में छा जाती लाली मां,
छोड़ घोसला पंछी उड़ जाते,
हर दिन नई राग सुनाते।

हे प्रकृति कैसे बताऊं तू कितनी प्यारी,
कहीं धूप तो कहीं छाव लाती,
हर दिन आशा की नई किरण लाती,
हर दिन तू नया रंग दिखलाती।

हे प्रकृति कैसे बताऊं तू कितनी प्यारी,
कहीं ओढ़ लेती हो धानी चुनर,
तो कहीं सफेद चादर ओढ़ लेती,
रंग भतेरे हर दिन तू दिखलाती।

हे प्रकृति कैसे बताऊं तू कितनी प्यारी,
कभी शीत तो कभी बसंत,
कभी गर्मी तो कभी ठंडी,
हर ऋतू तू दिखलाती।

हे प्रकृति कैसे बताऊं तू कितनी प्यारी,
कहीं चलती तेज हवा सी,
कही रूठ कर बैठ जाती,
अपने रूप अनेक दिखलाती।

हे प्रकृति कैसे बताऊं तू कितनी प्यारी,
कभी देख तुझे मोर नाचता,
तो कभी चिड़िया चहचाती,
जंगल का राजा सिह भी दहाड़ लगाता।

हे प्रकृति कैसे बताऊं तू कितनी प्यारी,
हम सब को तू जीवन देती,
जल और ऊर्जा का तू भंडार देती,
परोपकार की तू शिक्षा देती,
हे प्रकृति तू सबसे प्यारी।

– नरेंद्र वर्मा

10. ” मैं वृक्ष सन्यासी हूँ “

मुझे नहीं सुख-दुःख की चिंता
मैं वृक्ष सन्यासी हूँ।
मुझसे ही जीवन हैं सबका
मैं अमर अविनाशी हूँ।

काट दो चाहे जड़ो को मेरी
मौत तुम्हारी ही आनी हैं,
मुझपे चलेगी जितनी कुल्हाड़ी
स्वाह तुमको ही हो जाना हैं।

मैं तो मर कर खाद बनूँगा
मिट्टी से जन्मा
मिटटी में ही घुलमिल जाऊँगा।

ये इंसानो अपनी सोचो
तुमको कौन बचा पायेगा,
मिट जाएगी सारी हस्ती
वृक्ष ही प्राण बचाएगी।

पैदा हुवे तुम जबसे
जलती धुप में भी,
छाँव हमने ही पहुँचाया हैं
मैं ही वृक्ष अमर अविनाशी हूँ।

तो, आज के लिए बस इतना ही। उपरोक्त सभी ( Poem On Nature In Hindi ) / प्रकृति पर कविताएँ कविताएँ पढ़ने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद। हमें खेद है कि इस पोस्ट में हमने प्रकृति की सभी कविताएं को नहीं लिखी। अगर आपको हमारी पोस्ट अच्छी लगी तो अपने दोस्तों और परिवार के साथ शेयर करें। अगर आप हमारे लिए लिखना चाहते हैं तो हमसे Contact Us Page पर संपर्क करें या नीचे Comment करें।

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