Bhagwat Geeta ke top 10 life Changing Slok भगवत गीता के प्रमुख १० श्लोक जो आपका जीवन बदल देंगे

श्रीमद भगवत गीता के श्लोक में मनुष्य जीवन की हर समस्या का हल छिपा है| गीता के 18 अध्याय और 700 गीता श्लोक में कर्म, धर्म, कर्मफल, जन्म, मृत्यु, सत्य, असत्य आदि जीवन से जुड़े प्रश्नों के उत्तर मौजूद हैं|

गीता के श्लोक

1. (चतुर्थ अध्याय, श्लोक 7)

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत:।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥

yada yada hi dharmasy glaanirbhavati bhaarat:.
abhyutthaanamadharmasy tadaatmaanan srjaamyaham.

अर्थ – हे भारत (अर्जुन), जब-जब धर्म ग्लानि यानी उसका लोप होता है और अधर्म में वृद्धि होती है, तब-तब मैं (श्रीकृष्ण) धर्म के अभ्युत्थान के लिए स्वयम् की रचना करता हूं अर्थात अवतार लेता हूं।

2. (चतुर्थ अध्याय, श्लोक 8)

परित्राणाय साधूनाम् विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे-युगे॥

Paritranay sadhunaam vinashay ch duskritam
dharmsasthapnarthay sambhawami yuge yuge

अर्थ – सज्जन पुरुषों के कल्याण के लिए और दुष्कर्मियों के विनाश के लिए. और धर्म की स्थापना के लिए मैं (श्रीकृष्ण) युगों-युगों से प्रत्येक युग में जन्म लेता आया हूं।

3. (द्वितीय अध्याय, श्लोक 23)

नैनं छिद्रन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावक: ।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुत ॥

nainan chhidranti shastraani nainan dahati paavak.
na chainan kledayantyaapo na shoshayati maarut.

अर्थ – आत्मा को न शस्त्र काट सकते हैं, न आग उसे जला सकती है। न पानी उसे भिगो सकता है, न हवा उसे सुखा सकती है। (यहां भगवान श्रीकृष्ण ने आत्मा के अजर-अमर और शाश्वत होने की बात की है।)

4. (द्वितीय अध्याय, श्लोक 47)

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥

karmanyewadhikaraste maa faleshu kadachana
maa karmfalhetubhurma te sadeastwakarmani.

अर्थ – श्री कृष्ण कहते हैं कि हे अर्जुन, कर्म करना तुम्हारा अधिकार है परन्तु फल की इच्छा करना तुम्हारा अधिकार नहीं है| कर्म करो और फल की इच्छा मत करो अर्थात फल की इच्छा किये बिना कर्म करो क्यूंकि फल देना मेरा काम है|

5. (तृतीय अध्याय, श्लोक 21)

यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जन:।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते॥

yadyadaacharati shreshthastattadevetaro jan:.
sa yatpramaanan kurute lokastadanuvartate.

अर्थ – श्रेष्ठ पुरुष जो-जो आचरण यानी जो-जो काम करते हैं, दूसरे मनुष्य भी वैसा ही आचरण, वैसा ही काम करते हैं। वह (श्रेष्ठ पुरुष) जो प्रमाण या उदाहरण प्रस्तुत करता है, समस्त मानव-समुदाय उसी का अनुसरण करने लग जाते हैं।

6. (द्वितीय अध्याय, श्लोक 37)

हतो वा प्राप्यसि स्वर्गम्, जित्वा वा भोक्ष्यसे महिम्।
तस्मात् उत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चय:॥

Hatho wa prapyasi jitwa wa bhosksya mahim
tasmat uthist kontey yudhay kritnischay

अर्थ – यदि तुम (अर्जुन) युद्ध में वीरगति को प्राप्त होते हो तो तुम्हें स्वर्ग मिलेगा और यदि विजयी होते हो तो धरती का सुख को भोगोगे | इसलिए उठो, हे कौन्तेय (अर्जुन), और निश्चय करके युद्ध करो। (यहां भगवान श्रीकृष्ण ने वर्तमान कर्म के परिणाम की चर्चा की है, तात्पर्य यह कि वर्तमान कर्म से श्रेयस्कर और कुछ नहीं है।)

7. (द्वितीय अध्याय, श्लोक 62)

ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते।
सङ्गात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते॥

Dhyayato visayanpunsaḥ sangastesupajayata.
Saṅgatsanjayata kamaḥ kamatkrodhobhijayate.

अर्थ – इस श्लोक का अर्थ है: विषयों बारे में सोचते रहने से मनुष्य को उनसे आसक्ति हो जाती है। इससे उनमें कामना यानी इच्छा पैदा होती है और कामनाओं में विघ्न आने से क्रोध की उत्पत्ति होती है। (यहां श्रीकृष्ण ने विषयासक्ति के दुष्परिणाम के बारे में बताया है।)

8. (द्वितीय अध्याय, श्लोक 63)

क्रोधाद्भवति संमोह: संमोहात्स्मृतिविभ्रम:।
स्मृतिभ्रंशाद्बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति॥

krodhaadbhavati sammoh, sammohaatsmrtivibhram.
smrtibhranshaadbuddhinaasho buddhinaashaatpranashyati.

अर्थ – क्रोध से मनुष्य की मति मारी जाती है यानी मूढ़ हो जाती है जिससे स्मृति भ्रमित हो जाती है। स्मृति-भ्रम हो जाने से मनुष्य की बुद्धि नष्ट हो जाती है और बुद्धि का नाश हो जाने पर मनुष्य खुद अपना ही का नाश कर बैठता है।

9. (अठारहवां अध्याय, श्लोक 66)

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच:॥

sarvadharmaanparityajy maamekan sharanan vraj.
ahan tvaan sarvapaapebhyo mokshayishyaami ma shuch

अर्थ – हे अर्जुन- सभी धर्मों को त्याग कर अर्थात हर आश्रय को त्याग कर केवल मेरी शरण में आओ, मैं सभी पापों से मुक्ति दिला दूंगा, इसलिए शोक मत करो।

10. (चतुर्थ अध्याय, श्लोक 39)

श्रद्धावान्ल्लभते ज्ञानं तत्पर: संयतेन्द्रिय:।
ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति॥

Śradhavanllabhate gyanam tatpara Sanyatēndriya:.
gyanam labdhva param sanntimacireṇadhigacchati.

अर्थ – श्रद्धा रखने वाले मनुष्य, अपनी इन्द्रियों पर संयम रखने वाले मनुष्य, साधनपारायण हो अपनी तत्परता से ज्ञान प्राप्त कते हैं, फिर ज्ञान मिल जाने पर जल्द ही परम-शान्ति को प्राप्त होते हैं।